गुरुवार, 3 जून 2010

"आचार्य जी" का प्राकट्य

गीता के महात्म्य से कौन अनभिज्ञ होगा. हमने देखा आज कल ब्लॉग जगत में "आचार्य जी" का प्राकट्य  यत्र तत्र सर्वत्र हो रहा है . स्वलिखित ग्रन्थ में सद्विचार की धारा प्रवाहित कर रहे हैं. आचार्य शब्द का प्रयोग प्रथम अध्याय में ही समरभूमि कुरुक्षेत्र में  गुरु द्रोणाचार्य के लिए दुर्योधन ने किया है; एक बात और कही जा सकती है उस अर्थात द्वापर युग में कल पुर्जे कहाँ रहे होंगे. आज की तरह दूर दर्शन, अंतरजाल (इंटरनेट) आदि आदि ....! किन्तु मनुष्य अपने तप से, साधना से ऊर्जावान अवश्य रहता था. दिव्य चक्षु प्रदत्त थे. (प्रत्येक मनुष्य दिव्य चक्षु प्रदत्त भले न रहा हो किन्तु तपस्वी के पास यह शक्ति अवश्य रही होगी अथवा ईश्वर से ऐसा वरदान प्राप्त रहा हो) यही कारण है की संजय कौरवों के पिता  धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र में हो रही घटनाओं का आँखों देखा हाल बताने में सक्षम रहे. 

"दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढम दुर्योधनस्तदा 
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत"

श्लोक का अर्थ तो यह है कि "संजय बोले (वास्तव में संजय धृतराष्ट्र के यह  पूछने पर कि धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले कौरवों और पांडवों के पुत्रों ने क्या किया,  कहते हैं) उस समय राजा दुर्योधन ने यूह रचनायुक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा .(श्लोक क्रमांक दो) यह कुरुक्षेत्र के यूद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण का प्रसंग है.  गीता के श्लोकों का बड़े बड़े आचार्यों ने वृहत विश्लेषण किया है. उन्ही संतों में से एक श्री श्रीमद ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद; संस्थापकाचार्य: अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ: द्वारा इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार की गई है; 
धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था. दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था. वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पांडवों के साथ कभी भी समझौता नही कर पायेंगे क्योंकि पाँचों पांडव जन्म से ही पवित्र थे.  फिर भी उसे तीर्थस्थान के प्रभाव के विषय में संदेह था.  इसीलिए संजय युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया. अतः वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था. उसने उसे विशवास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नही जा रहे हैं. उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योधन पांडवों की सेना को देखकर तुरंत अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया.  यद्यपि दुर्योधन को राजा कहकर संबोधित किया गया है तो भी स्थिति की गंभीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा.  अतएव दुर्योधन राजनीतिग्य बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था. किन्तु जब उसने पांडवों की व्यूह रचना देखी तो उसका कूटनीतिक व्यवहार उसके भय  को छिपा न पाया.   

                                                       धन्य हैं  आचार्य जी कम से कम आपके प्राकट्य ने हमें थोड़ा धर्मग्रन्थ की ओर झाँकने को प्रेरित किया.  सादर नमन........ 
जय जोहार......

14 टिप्‍पणियां:

  1. Achary ji ke bahane se hi sahi badhiya jaankaari mili....jay johaar

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  2. आचार्य जी का प्राकट्य दिवस मनाईए
    सर्वजन मिलकर धुमधाम से बैंड बजाईए

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  3. आचार्य जी का प्राकट्य दिवस मनाईए
    सर्वजन मिलकर धुमधाम से बैंड बजाईए

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  4. ...भाई जी हमने तो अपना आवेदन लगा दिया है शिष्यता के लिये ... अब आगे जैसी प्रभू की लीला .... जय आचार्य जी ...जय जोहार ...!!!!

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  5. जय आचार्य जी ...जय जोहार ...!!!

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  6. आईये जानें ..... मन ही मंदिर है !

    आचार्य जी

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  7. "धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था. दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था. वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पांडवों के साथ कभी भी समझौता नही कर पायेंगे..."

    बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है आपने।

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  8. आदरणीय अवधिया जी। विश्लेषण पर टिप्पणी के लिये धन्यवाद। वस्तुतः यह विश्लेषण श्री क्रिष्ण भावनाम्रित सन्घ के सन्स्थापक द्वारा लिखित पुस्तक, से उद्ध्रित है। अच्छा लगा लिख बैठा।

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  9. आचार्य जी का प्राकट्य दिवस मनाईए
    सर्वजन मिलकर धुमधाम से बैंड बजाईए

    ....lalit sharma ji se saabhaar, sahamat.

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  10. सूर्यकान्त गुप्ता said...

    वायु से भी तीव्रगामी इस मन पर विजय प्राप्त कैसे करें आचार्य! इस जगत मे मानवता के बजाय दानवता मे हो रही बढोतरी पर काबू करने का उपाय भी सुझाये!! हरिओम तत्सत!

    वत्स
    आपके प्रथम प्रश्न का उत्तर इस लेख में है : -
    "मन की शांति" (ब्लाग पर पढें)

    आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर आगामी लेख में मिलेगा, प्रतिक्षा करें ।

    आचार्य जी

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