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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

बंधकर परिणय-सूत्र में

                       बंधकर परिणय-सूत्र में, सहज हि उपजे प्रीत।
रख पाये प्रेम सहेज के, वही है सच्चा मीत।।"

                  मनुष्य के सोलह संस्कारों में से एक और मुख्य संस्कार "विवाह" महज वासना तृप्ति का साधन नहीं है बल्कि सांस्कारिक परिवार के निर्माण में सहायक है और जिससे समाज का भी निर्माण होता है। हाल ही में अखबार में एक ऐसा रोचक प्रसंग छपा था। पर्वराज दीपावली के आगमन में चंद दिन, नहीं नहीं शायद चंद घंटे बचे थे।  तभी तो घर में वृद्ध दंपत्ति (दादा दादी के उम्र के को भी यह रास नहीं आ रहा था कि त्यौहार बिना मिठाई मने। पकवान भले बना न सकें, मिठाई तो ला सकते हैं मिष्टान भण्डार से। चल पड़े ऑटो से बाज़ार।  भले ही चल सकने में असमर्थ थे फिर भी पत्नी के साथ जाने के लिए तैयार हो गए। हाँ दादी जरा अपने पति महाशय से हेल्थ के मामले में ठीक थीं।
                        रास्ते में ही मिष्टान भण्डार दिखाई दिया। वृद्धा माता को मालूम है कि उनके श्रीमान जी चलने में असमर्थ हैं अतएव चल पड़ीं स्वयं मिठाई लेने। पर यह क्या शॉप में इतनी भीड़ कि कोई सुन ही नहीं रहा है माताजी की आवाज। कई बार आवाज देने के बाद भी रिस्पोंस नहीं मिलने के कारण दूसरे शॉप की ओर बढ़ती हैं इतने में दादाजी की भी इच्छा होती है कि वे भी उस शॉप में पहुंचे। अतएव ले जाती हैं दादी जी उन्हें सहारा देकर और फिर खरीदते हैं अपनी पसंद की मिठाई। उसमे यह सारांश निकाला गया कि आज के प्रेमी कहने को तो प्रेमिका के  लिए चाँद तारे तोड़ लाने को कहते हैं, अपनी जान दे देने को कहते हैं ...और शादी के बाद चंद  ही दिनों में तलाक की नौबत आ जाती है। क्या कहियेगा प्यार की कौन सी डोर ज्यादा मजबूत होती है .....विवाह के पहले हुए प्रेम की या विवाह के बाद के प्रेम की ?
जय जोहार .........

1 टिप्पणी:

संध्या शर्मा ने कहा…

डोर तो वही मज़बूत होती है, जो टूटे ना, निभ जाए उम्र भर, किसी बोझ की तरह नहीं बल्कि ख़ुशी -ख़ुशी, एक खुमार की तरह जो जिन्दगी भर के चढ़े और अंतिम सांस तक ना उतरे....