(१)
निष्कपट निश्छल चेहरा
निष्कपट निश्छल चेहरा
हिलते हैं, ओष्ठ अधर दोनों
न बोल पाते हुए भी
खींच लेता है सारी दुनिया अपनी ओर
कौन नहीं करेगा
निछावर
इस पर अपना प्यार
नही रहता कोई भेद भाव;
उंच- नीच, अमीर- गरीब का
क्षण भर के लिए ही सही.
(2)
गुजरता है पल पल परिवर्तन के दौर से
करवटें बदलना, पेट के बल सोना (पलटी मारना}
घुटने के बल चलना, धीरे धीरे रेंगना
बोलना भी सीख गया है,
तोतली बोली हंसाती है सबको
रट्टू तोता होता है
समझ नहीं है कौन क्या बोल रहा है
दुहराता है सुने गए शब्द
क्या मालूम उसे यह गन्दी गाली है
शुरू होती है माँ- बाप की परीक्षा
उसे अच्छे संस्कार देने की.
(3)
कदम रखता है स्कूल की दहलीज पर
छिन जाती है आजादी
दिन भर घूम घूम कर
खेलने की, धमाचौकड़ी मचाने की.
लद जाता है बस्ते की बोझ से
(४)
पालक परेशान, डूबे रहते हैं इस सोच में
कहीं क्लास में बच्चा पिछड़ तो नहीं रहा
घट तो नहीं रही है उनकी शान
बालक की क्षमता है तो कोई बात नहीं
वरना बच्चे के मन में जड़ जमाता अवसाद
बना लेता है अपना ग्रास
उसकी सारी खुशियों को
दिल दहल जाता है जानकर परिणति इसकी;
दिमागी संतुलन खो जाना या अपनी जान गँवा बैठना.
(५)
मिल चुकी है पढ़ाई से मुक्ति
येन केन प्रकारेण ख़तम हुआ
अर्थोपार्जन करने के साधन
जुटाने का दौर, जुगाड़ लेता है
अपने रहने का ठौर
गुजरती है जिन्दगी आलिशान बंगलों में
कहीं झोपडी में ही सही
पसीने की गाढ़ी कमाई से कर रहा है
अपना जीवन यापन मिल रहा है खाने
को दो जून की रोटी, मन ही मन परमपिता
परमेश्वर से करते रहता है विनती
कोई छीन न ले थाली से खाने के लिए
उठाया हुआ कौर.
इन तमाम घर गृहस्थी के चक्कर में फंसे
रहकर कभी फरमाया है आपने गौर
क्या अच्छा होता फिर से बन जाते हम बच्चे
विचरते उस दुनिया में जहाँ न कोई बेईमानी है
न मक्कारी है फरेबी है न भ्रष्टाचार की बीमारी है
जय जोहार......
(3)
कदम रखता है स्कूल की दहलीज पर
छिन जाती है आजादी
दिन भर घूम घूम कर
खेलने की, धमाचौकड़ी मचाने की.
लद जाता है बस्ते की बोझ से
(४)
शुरू हो जाती है प्रतिस्पर्धा की भावना
पांचो अंगुलियाँ एक समान नहीं होती
फिर भी बच्चों से ज्यादा रहते हैं पालक परेशान, डूबे रहते हैं इस सोच में
कहीं क्लास में बच्चा पिछड़ तो नहीं रहा
घट तो नहीं रही है उनकी शान
बालक की क्षमता है तो कोई बात नहीं
वरना बच्चे के मन में जड़ जमाता अवसाद
बना लेता है अपना ग्रास
उसकी सारी खुशियों को
दिल दहल जाता है जानकर परिणति इसकी;
दिमागी संतुलन खो जाना या अपनी जान गँवा बैठना.
(५)
मिल चुकी है पढ़ाई से मुक्ति
येन केन प्रकारेण ख़तम हुआ
अर्थोपार्जन करने के साधन
जुटाने का दौर, जुगाड़ लेता है
अपने रहने का ठौर
गुजरती है जिन्दगी आलिशान बंगलों में
कहीं झोपडी में ही सही
पसीने की गाढ़ी कमाई से कर रहा है
अपना जीवन यापन मिल रहा है खाने
को दो जून की रोटी, मन ही मन परमपिता
परमेश्वर से करते रहता है विनती
कोई छीन न ले थाली से खाने के लिए
उठाया हुआ कौर.
इन तमाम घर गृहस्थी के चक्कर में फंसे
रहकर कभी फरमाया है आपने गौर
क्या अच्छा होता फिर से बन जाते हम बच्चे
विचरते उस दुनिया में जहाँ न कोई बेईमानी है
न मक्कारी है फरेबी है न भ्रष्टाचार की बीमारी है
जय जोहार......
13 टिप्पणियां:
क्या अच्छा हो जाता फिर से बच्चे बन जाते ...
बड़ों की दुनिया में रहकर ख़याल यही बार बार आता है ...!
सुन्दर कविता ...!
...जबरदस्त अभिव्यक्ति, बधाई !!!
बहुत बढिया!
कौन नहीं करेगा
निछावर
इस पर अपना प्यार .....सुन्दर कविता ...!
बहुत सटीक और सुन्दर अभिव्यक्ति...जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं निश्छलता खत्म होती जाती है....
काश ऐसा हो पाता…………………।बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति।
बहुत प्यारी प्यारी रचनाएँ.
khushi hui, ki aapki kavitaaen bhi arthvan hain. sundar hai. prerak hain. badhai.
bchpn hr gm se begaanaa hota he jnaab .akhtar khan akela kota rajsthan
रचना पढने के पहले ही बच्चों को तस्वीर देखकर मन प्रसन्न हो गया
सचमुच एक मुस्कुराता बच्चा
हमारे पूरे दिन को अच्छा कर देता है
जो बच्चा रोता है वह भी दिन खराब नहीं करता
दिन उस आदमी से खराब हो जाता है जो स्वार्थ के चलते अलसुबह दरवाजे पर खड़ा हो जाता है
आपने बहुत अच्छा लिखा है भाईसाहब. मजा आ गया.
ज़बरदस्त... लाजवाब
सचमुच, यह है ही इतना प्यारा।
………….
संसार की सबसे सुंदर आँखें।
बड़े-बड़े ब्लॉगर छक गये इस बार।
देर से आने के लिए क्षमा चाहेगें।
दु दिन ले घाल दिस-नेवता खवई हाँ
बने लिखे हस दाऊ,सुंदर सुंदर बालक भगवान के फ़ोटो देख के मन प्रसन्न होगे।
खिचरी खवई चलत हे।
जोहार ले
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