आईए मन की गति से उमड़त-घुमड़ते विचारों के दांव-पेंचों की इस नई दुनिया मे आपका स्वागत है-कृपया टिप्पणी करना ना भुलें-आपकी टिप्पणी से हमारा उत्साह बढता है

बुधवार, 17 नवंबर 2010

दिल्ली का लक्ष्मी नगर, श्मशान बन गया

दिल्ली का लक्ष्मी नगर, श्मशान बन गया 
(1)
ढह गई पांच मंजिलों की  इमारत
सैकडों घायल हैं, दर्जनों ने दे डाली अपनी शहादत  
या अल्लाह, या ख़ुदा ! क्या कमी रह गई थी?
क्या  कर न पाए थे ये  पूरी तेरी  इबादत ?
(२)
रह रहे थे सैकड़ों, आत्मा में  इनका 
क्या तेरा वास न था
लगता है सचमुच तू सोता रहा 
इस अनहोनी का किसी को अहसास न था 
देखते ही देखते यह इलाका कब्रिस्तान बन गया 
दिल्ली का लक्ष्मीनगर श्मशान बन गया 
ईश्वर उन सभी की आत्मा की शान्ति व उनके परिवार को इस दारुण दुःख को सहने की शक्ति प्रदान करे 
जय जोहार........

तुलसी विवाह/देव-उठनी अकादसी के गाड़ा गाड़ा बधाई

तुलसी विवाह/देव-उठनी अकादसी के गाड़ा गाड़ा बधाई 
कार्तिक मास की एकादशी तिथि, देव उठनी एकादशी (छोटी दीपावली) पौराणिक कथाओं में "देव" शयन से उठते हैं, मंगल कार्य,   खासकर "विवाह" संस्कार इस एकादशी के पश्चात मूहूर्त देखकर  सम्पादित किया जा सकता है. एक और प्रसंग का बोध होता है "वृंदा" का राक्षस जालंधर से विवाह, वृंदा के सतीत्व के बल पर अमरत्व प्राप्त कर उसके द्वारा चहुँ ओर भय हाहाकार का वातावरण उत्पन्न करना, भगवान विष्णु द्वारा  जालंधर वध व 'वृंदा/''तुलसी' के समक्ष जालंधर के रूप में उपस्थित होना, तुलसी से विवाह, तत्पश्चात श्राप से पत्थर बनना और इस युग में तुलसी के नीचे पत्थर की गोल आकृति बन तुलसी के नीचे रखा जाना और शालिग्राम के रूप में पूजा जाना. 
इस त्यौहार को व्रत के साथ मनाने का अपना अलग महत्त्व है. व्रत का तात्पर्य एक प्रकार की प्रतिज्ञा से है जिसके अंतर्गत मानव कोई भी असंयमित/दुष्कर्म नहीं करने का प्रण लेता है. आहार न लेना, ताकि  तामसिक विचार  उत्पन्न न  हो, ऋत्विक फसल गन्ने का  मंडप बना  तुलसी विवाह का आयोजन, नई फसल, शाक सब्जी फल (सभी जो इस ऋतु में ही पहले प्राप्त होती थीं) का पूजन इत्यादि कर यह त्यौहार मनाया जाता है.  इस दिन एक और ख़ास बात होती थी कि रात में अपने घर के टूटे टोकने, और भी बांस के बने टूटे सूप, बेकार लकड़ियाँ (इसी को छितका कहते हैं.) आदि जलाई जाती थी  और ठण्ड भगाई जाती थी. हमारे प्रांत की बोली में इसीलिए इसे "छितका अकादसी" कहा जाता है.
वस्तुतः किसी भी व्रत या त्यौहार का एक निश्चित तिथि में मनाया जाना मेरे मतानुसार केवल पौराणिक कथा का अनुसरण नही होना चाहिए. कुछ न कुछ प्रकृति में होने वाले परिवर्तन  और मानवीय आचरण/स्वास्थ्य में परिवर्तन को भी आधार मानकर मनाया जाता होगा. क्वार महीने से शीतलता का आभास होने लगता था. कार्तिक में ठण्ड किशोरावस्था में पहुँच मार्गशीर्ष, पौष महीने में अपने यौवन से  सभी को मजा चखाता था.  वर्तमान में कार्तिक में भी गर्मी सता रही है.  परम्परा अभी भी कायम है. अच्छा लगता है.  सभी ब्लॉगर बंधुओं को इस पावन पर्व की ढेरों शुभकामनाएं. 
जय जोहार..............

सोमवार, 15 नवंबर 2010

विद्या ददाति विनयम विनयाद याति पात्रताम

विद्या ददाति विनयम विनयाद याति पात्रताम
पात्रात्वात धन्माप्नोति धनाद धर्म ततः सुखम
सरल शब्दों में उक्त स्त्रोत का अर्थ शायद "विद्या से विनय, विनय से  धनार्जन की पात्रता और धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है.  उपरोक्त संस्कृत की सूक्ति पर वार्तालाप चल रहा था कि " क्या धन के बिना प्राप्त धर्म से सुख प्राप्त नहीं होता. क्या धन प्राप्त होने पर ही धर्म का पालन होगा आदि आदि. मेरे विचार से कोई भी सूक्ति बनती है तो उसका उद्द्येश्य गलत नहीं होता. लोग उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि धन तो झगड़े की जड़ है. बिलकुल सत्य है किन्तु किस प्रकार का धन? अपनी जीविकोपार्जन के लिए परिश्रम, बुद्धि के बलबूते से प्राप्त अथवा चोरी डकैती व अन्य अनुचित साधनों के दवारा प्राप्त.  श्लोक में लिखी पंक्तियों का अभिप्राय " चोरी डकैती व अन्य अनुचित साधनों के दवारा प्राप्त" कतई नही होगा.  किसी भी ग्रन्थ में, शास्त्र में विद्वजनो द्वारा एक ही विषय पर विरोधाभाषी विचार प्रकट किये जा सकते हैं किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि दोनों ही गलत हैं अथवा एक गलत है. हो सकता है भिन्न भिन्न विचारधारा देश काल  परिस्थिति को देखते हुए बनी हो.  यह तो हुई सूक्तियों की व्याख्या की बात. 
नवम्बर का महीना चल रहा है. कहने को तो शीत ऋतु है पर नवम्बर में अम्बर की ओर सिर उठा के देखते हैं, पता चलता है बदली छाई है, बारिश हो रही है. जरा भी धूप निकली तो गर्मी से लोग हलाकान. मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों में से इन पंक्तियों को लिखने से अपने आपको नहीं रोक पाया;
कार्तिक माह की हो रही रवानगी 
शीतलता का एहसास नहीं 
होता देख खिलवाड़ "प्रकृति" संग  
 क्रूर होती "प्रकृति" का हमें जरा भी आभास नहीं 
मालूम है  यह कलयुग है,  कलपुर्जों का रहेगा जोर 
वन-उपवन उजड़ने लगे हैं, ध्वनि धूल धुंआ विसरित चहुँ ओर
कर प्रयास रोकें वन की कटाई, वृक्षारोपण बढ़ाना है 
पर्यावरण बचाना है जलवायु-संतुलन लाना है 
जय जोहार..........

रविवार, 7 नवंबर 2010

पञ्च दिवसीय दीपोत्सव व लोक संस्कृति

यद्यपि भारतीय हिन्दू संस्कृति  के अनुसार प्रत्येक माह की प्रत्येक तिथि अपने आप में एक पर्व  है, कार्तिक का महीना सभी दृष्टिकोण से पावन माना जाता है. कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष दोनों ही त्योहारों से परिपूर्ण है. चारों ओर खुशियाँ बिखेरे हुए. क्यों न हो. यह सब अकारण नहीं है. बरसात का मौसंम विदा ले चुका होता है. शीत ऋतु का आगमन. स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सामान्यतया रोगों की विदाई का समय. चिकित्सकों के लिए बीमार सीजन.  खेत खलिहानों में भी खुशहाली का वातावरण. पञ्च दिवसीय दीपोत्सव का तो कहना ही क्या.  तरह तरह के पकवान. उत्साह प्रदर्शित करने का भिन्न भिन्न तरीका, मजा ही आ जाता है. यह कहना भी अनुचित नही होगा की अपनत्व महज औपचारिकता में परिवर्तित होता दिखाई पड़ने लगा है. शहरों में लोक संस्कृति भी लुप्त होती नजर आ रही है. धनतेरस से अमावस्या तक अपने ही घर में इस पर्व का आनंद लिया गया. विस्तृत तकनालोजी की देन चलित दूरभाष से शुभकामना  सन्देश का आदान प्रदान. लक्ष्मी पूजा. तत्पश्चात चल पड़े अपने ननिहाल जहाँ प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर माध्यमिक की शिक्षा पूरी हुई है.  एम बी बी एस स्व वाहन से जा रहे थे. रास्ते में कई गाँव पड़े जहाँ यादवों का पारंपरिक पोशाक में पारंपरिक नृत्य चल रहा था. पुरानी यादें ताजा हो आई. बच्चे पूछते गए जहाँ तक बन पड़ा बताये. बचपन में अपन भी उनके नृत्य में शामिल हो जाया करते थे. उनकी कुल देवी या कुल देवता कहें उन्हें जगाया जाता है, जिसे मातर जगाना कहते हैं.   (शायद आह्वान किया जाना इसका पर्यायवाची हो सकता है) इसमें बलि प्रथा का भी प्रचलन था पहले अभी भी है की नही मैं कह नहीं सकता.  अपनी प्यारी छत्तीसगढ़ी बोली में दोहे गा गा के यादव लोग नाचते हैं एक तरफ ईश्वर भक्ति की ओर ले जाता हुआ दोहा तो एक तरफ हास्य का पुट देता हुआ । वाद्य यंत्र भी अलग किसम का जिसे  "गंड़वा बाजा "कहा जाता है, के साथ नाचते हुए नर्तक  जिसमे एक या तो महिला भी होती थी या कोई महिला पात्र बनकर नाचता था। अभी शहरों में यह दृश्य देखने में कम आता है.  देखिये दोनों प्रकार के दोहों की एक झलक;

"राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट 
अंत काल पछतायेगा प्राण जाएगा छूट 
(२)
सबके बारी म अताल पताल मोर बारी म केला रे 
अउ सबके डउकी कानी खोरी मोर डउकी अलबेला रे .......                                                                                                                                              राम राम सब कोई कहे, दसरथ कहे न कोय अउ                                                                                                                                        एक बार दसरथ कहे तो घर घर लइका होय
बलि प्रथा के ऊपर निम्न लिखित पंक्तियाँ लिखने को सूझ बैठा:-
धनतेरस, नरक चतुरदस, सुरहुत्ती देवारी अउ भाई दूज 
अपन अपन देवी देवता संवुर के बोकरा बोकरी कुकरी पूज 
जय जोहार ...........

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

करें माँ लक्ष्मी का वंदन




आई दिवाली की शुभ संध्या 
करें माँ लक्ष्मी का वंदन 
आयें ज्ञान की ज्योति जलाएं 
मनः विकार का तिमिर हटायें
स्वीकारें अभिनन्दन 
करें माँ लक्ष्मी का वंदन 
                                         करें माँ लक्ष्मी का वंदन 
                                       "शुभ दीपावली"

"दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं"

"दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं"
उर उत्साह उमंग के संग 
जीतें जीवन की हर जंग 
काम क्रोध मद लोभ ईर्ष्या 
अरु बैर भाव का तिमिर हटे
दुःख दारिद्र्य मिटे सबका 
संताप, ताप, सब पाप कटे
दीपोत्सव की रोशनी 
घर घर लाये उजियारा
दीप कतार है छटा बिखेरे 
प्रासाद कुटीर हर गलियारा  
सभी मित्रों को पुनः  दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं 
जय जोहार..........

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

छोटी दीपावली की बहुत बहुत बधाई

पौराणिक कथाओं के अलावा ऐसा प्रतीत होता है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर में चरम रोग न होने पाए साथ ही रक्त प्रवाह सुचारू रूप से होता रहे इसलिए प्रकृति प्रदत्त द्रव्यों यथा तिल, चिचड़ा आदि का उबटन लगा व मालिश कर स्नान करना वर्णित है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उचित प्रतीत होता है.
नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारत सजायी जाती है।
इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समझ यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। पुण्यात्मा राज की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है।

दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे वर्ष का और समय दे दे। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है। ऋषि बोले हे राजन् आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें।
राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है। स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपरोक्त कारणों से नरक चतुर्दशी, रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से जाना जाता है.
मेरे सभी ब्लॉगर मित्रों को पांच दिवसीय दीपोत्सव पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं. 
स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है यदि अनुभव यह कर पाए 
सन्मार्ग पर रखें कदम,  पग में  कांटे न चुभने पाए
दुःख सुख में बन सबके सहभागी सहृदयता का अलख जगाएं
"प्रकाश" के इस पावन पर्व में अवगुण का अँधेरा मिटायें 
हम ऐसी दिवाली मनाएं 
जय जोहार .........

बुधवार, 3 नवंबर 2010

जीवन के चढ़ते उतरते ग्राफ

जीवन के चढ़ते उतरते ग्राफ 
जीवन में लक्ष्य निर्धारण और उस लक्ष्य को पाने के लिए किया गया प्रयास मायने रखता है वरना रोजमर्रे की जिंदगी तो सब जी रहे हैं.  चाहे विद्वजन हों, विद्यार्थी हों, साधारण मनुष्य हो सभी चाहते हैं जानना; जो भी कार्य वे कर रहे हैं वह किस स्तर का है ? मसलन विद्योपार्जन में निर्धारित पैमाना होता है लिखित व मौखिक परीक्षा जिसका आंकलन पूछे जाने वाले सवालों के लिए निर्धारित अंक में से कितना प्राप्त करने योग्य है यह विचार  कर किया जाता है .  अंक गणित का महत्त्व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है.  तुलनात्मक अध्ययन के लिए तो शत-प्रतिशत. जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव के लिए भी.  अब यहीं देख लीजिये; आपका सक्रियता क्रमांक कैसे नंबर वन को छू ले इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं. अच्छी बात है कम से कम स्तरीय लेख-प्रलेख-आलेख (लिख तो दिया किन्तु यदि इनके अलग अलग मायने पूछें जाँय तो नही मालूम, कृपया संक्षिप्त में जानकारी जरूर दीजियेगा), सहित मन में  उपजते तरह तरह के सुविचारों के प्रस्तुतिकरण में निरंतरता बनी रहती है जो पठन पाठन के लिए बहुत उपयोगी है. इन आंकड़ों के अनुसार बनते ग्राफ और मन में उमड़ती प्रतिक्रियाएं कुछ इस तरह बयाँ की जा सकती है

बारहवीं की परीक्षा का
निकल चुका है नतीजा
"प्रथम" आया है अपनी कक्षा में 
अपने प्यारे चाचा का भतीजा 
बंट रही है मिठाई घर में 
अवसर है, खुशियाँ  बांटने का 
अगले पाय दान में अच्छी फेकल्टी 
के साथ कॉलेज छांटने का 
(२)

मिल गया मनचाहा विषय, मनचाहा कॉलेज
बस देते हैं यही समझाइश 
जी भर के मेहनत करो बढ़ाओ अपना नॉलेज
(३)
नए कॉलेज में प्रवेश किये. बीता था एक महीना
 कॉलेज की रेगिंग परिपाटी ने सारा सुख -चैन छीना
"अवसाद" के लक्षण दिखने लगे थे चेहरे पर साफ़ साफ़
चंद दिनों में उतर गया था खुशियों का यह ग्राफ.

यह तो महज एक महाविद्यालय का दृश्य था. ऐसे कई अवसर आते हैं जो पल में खुशी दे जाते हैं  व पल में दुखों का पहाड़ खडा कर देते हैं. यही जीवन चक्र है. दुःख से सामना ना हुआ हो तो सुख की अनुभूति कैसे हो सकती है. 
                आज है धनतेरस : सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं. माँ लक्ष्मी की कृपा से सबके घरों में धन बरसे, सुख समृद्धि वैभव से भर दे. 
जय जोहार...........

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"गरीबी" रह जाती है बनके हमेशा नेताओं की "मसखरी"

"गरीबी" रह जाती है बनके हमेशा नेताओं की "मसखरी" 
(१)
आज की विकराल समस्या
मँहगाई, बेरोजगारी भूखमरी
इनके तले दबी "गरीबी" 
रह जाती है बनके हमेशा नेताओं की "मसखरी" 
(२)
कुदरत ने भेजा है हमें
बाकायदा दिलो दिमाग़ के साथ
कुछ कर गुजरने की हो तमन्ना
 बैठ न  सकेगा फ़ालतू, धरके अपने हाथ पे हाथ
 (३)
 न कर पाया हासिल तालीम ऊंची
फिक्र की कोई बात नहीं
  उगता है सूरज, खिलती है चांदनी,
लावे अमावस का अँधेरा,  जीवन में हर रात नहीं
(४)
पांचवी पास एक आदमी, हुनर है ' काष्ठ-कारी'  का 
दे रहा रोजगार औरों को, काम है ठेकेदारी का
जरूरत है जज्बे की दिल में,  हो जायेंगी सब समस्या दूर  
मन के उमड़ते घुमड़ते इन विचारों पे गौर फरमाइयेगा जरूर.  
जय जोहार.............

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

"काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ 
सब परिहरि रघुबीरही भजहु भजहि जेहि संत"
विजया दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

होती है "हार" हर हाल में पिशाच विषयासक्ति की

"नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिताः"
 "माँ सिद्धिदात्री" आप सबके कारज सिद्ध करें. बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित......
करते हैं उपासना "शक्ति" की, 
होती है परीक्षा "भक्ति" की
नवरात्रि रख नित स्वच्छ मन, 
श्रद्धा सहित साधक तू बन 
माँ के चरणों में कर खुद को  अर्पण, 
होगी माँ की कृपा तुझ पर 
परख अपना सामर्थ्य तू, 
होती है हार हर हाल में 
पिशाच विषयासक्ति की.....
"जय माँ दुर्गे"
पुनः नवमी एवं आने वाले पर्व "विजयादशमी" के पावन अवसर पर मेरे समस्त ब्लॉगर मित्रों को बहुत बहुत बधाई व अनेकों शुभकामनाएं
जय जोहार............

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

अब हो सकेगा आप लोगों से नित मेल मिलाप जरूर

समस्त ब्लॉग मित्रों को नमस्कार एवं नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनाएं. माँ भगवती आप सभी की मनोकामना पूर्ण करे.
बदले अपना निवास, ब्लॉग से हो गए थे दूर 
क्या करें, अंतरजाल कट चुका था 
भारत संचार निगम लिमिटेड 
की असीम कृपा हुई, 
दूरभाष स्थानान्तरण आवेदन दाखिल करने के 
दो माह बाद लग पाया कनेक्शन,  हुजूर.
आशा ही नहीं विश्वास है, अब हो सकेगा आप लोगों से 
नित मेल मिलाप जरूर ........
जय जोहार.....................

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

प्रदूषण के कितने प्रकार

(१)
प्रदूषण के कितने प्रकार
पूछना न कभी किसी से यार  
भौतिक, शारीरिक  या  चारित्रिक
हर कोई प्रदूषण झेल रहा है
कुछ दूसरे पर ठेल रहा है
(२)
सरकार बनाती है योजनायें
तय करती है एक समय सीमा
हम जो ठहरे आलस के पुजारी,
करते हैं काम धीमा धीमा
(३)
शहर की  सड़क, गाँव की डगर
सुधर रही हैं, गति धीमी है मगर
मार्ग दोराहा नहीं रह गया है
एक तरफ 'कार्य प्रगति पर' लिख
दूसरी ओर पथिकों की दुर्गति कर गया है.
(४)
रोड जाम है;
दुपहिया तिपहिया बहुपहिया वाहन फेंके धुंआ, 
करें हैरान, कर  'ध्वनि-संकेत' का शोर  
बहरे हो गए कान, हो गई नजर कमजोर
धूल स्नान कर कर के हो जाती जनता  धुलिया
 बदल जाता है गाँव, शहर संग जनता का भी हुलिया 
जय जोहार..............

सोमवार, 23 अगस्त 2010

निर्मल मन के निर्मल पांखी

रोगों से रक्षा करता है रक्षा सूत्र                 
कर्तव्यों की याद दिलाता है रक्षाबंधन
इस रक्षाबंधन दिन भर बंधेगी राखी
हम भी बंधे हैं मीठे बंधन से
सावन माह की पूर्णिमा को रक्षाबंधन (24 अगस्त) का पर्व मनाया जाता है। जन-जन में यह पर्व भाई-बहन के रिश्तों का अटूट बंधन और स्नेह का विशेष अवसर माना जाता है।
दरअसल रक्षाबंधन भारतीय धार्मिक परंपराओं में ऐसा पर्व है, जो न केवल भाई-बहन वरन हर सामाजिक संबंध को मजबूत करने की भावना से भरा है। इसलिए इस पर्व को मात्र भाई-बहन के संबंध से जोडऩा इसके महत्व को सीमाओं में बांधना है।
यह पर्व गहरे सांस्कृतिक, सामाजिक अर्थ लिए हुए हैं। इस त्यौहार के अर्थ को समझने के लिए रक्षा बंधन का मतलब जानना जरुरी है। प्रेम, स्नेह और संस्कृति की रक्षा का पर्व ही रक्षा बंधन है। यह एक-दूसरे की रक्षा के वचन का अवसर है। यह भावनाओं और संवेदनाओं का बंधन है। बंधन का भाव ही यह है कि एक को दूसरे से बांधना। ऐसा बंधन कोई भी किसी को भी बांध सकता है।
भाई-बहन के अलावा रक्षा सूत्र गुरु-शिष्य, भाई-भाई, बहन-बहन, मित्र, पति-पत्नी, माता-पिता-संतान, सास-बहू, ननद-भाभी और भाभी-देवर एक-दूसरे को बांध सकते हैं। क्योंकि बंधन का भाव ही यह होता है कि एक-दूसरे के लिए हमेशा प्यार, विश्वास और समर्पण रखना।
पुराण और इतिहास के अनेक प्रसंग साबित करते हैं कि पत्नी अपने पति की रक्षा के लिए रक्षासूत्र बांधती थी। लेकिन समय और परंपराओं में बदलाव के साथ यह भाई और बहन के संबंधों के अर्थ में ही प्रचलित हो गया।
रक्षा बंधन की बहुत बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई
वास्तव में बंधन और नियम पालन से ही सभ्य समाज बनता है। इससे ही हर संस्कृति को सम्मान मिलता है। रक्षा बंधन भी अपनत्व और प्यार के बंधन से रिश्तों को मज़बूत करने का पर्व है। बंधन का यह तरीका ही भारतीय संस्कृति को दुनिया की अन्य संस्कृतियों से ऊपर और अलग पहचान देता है।
"येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥"
"जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा।" इस पावन पर्व पर अपने गुरुजनों से विद्वानों से, ब्राह्मणों से, इस मन्त्र के साथ रक्षा सूत्र बंधवा उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है.
निर्मल मन के निर्मल पांखी
मानत हौ बहिनी के रिश्ता
दौ ओला अपन पावन आंखी
मन के बिस्वास ले बढ़ के नई ये कौनो
ये पवित्तर रिश्ता के साखी
इही भावना के संग मा संगी
बान्धौ अउ बंधवाऔ राखी
एक बार फेर ये तिहार के जम्मो झन ला गाड़ा गाड़ा बधाई
बड़े से बड़े आफत ले उबारे भगवान करावे झन काखरो से लड़ाई
जय जोहार........

प्याज चौदह रूपये किलो और आलू दस

मित्रों, आप सभी को सादर नमस्कार!
घर में अभी भी अंतरजाल के तार जुड़े नहीं हैं. बस चंद मिनट के लिए ही सही,  यहाँ कुछ लिखने को मन हुआ, बैठ गया.  साग भाजी खरीदने हमने दिन निश्चित नहीं किया है. कभी भी चले जाते हैं. शनि वार का दिन था पास में ही बाज़ार लगता है, चले गए. परिवर्तित निवास स्थान से बाज़ार नज़दीक है. एक दो दिन के अंतराल में चले जाते हैं. एक दिन फरमाइश हुई सब्जी लाना है. निकल पड़े सब्जी लेने. क्या क्या लाना है यह पूछते नहीं. हाँ घर आते ही जरूर पूछा जाता है क्या क्या लाये. सो घर आते आते हम इस प्रश्न का उत्तर तैयार करने में लग गए. जो सब्जियां खरीदी गईं थीं उन  पर ही. सब्जियों के भाव (प्रति किलो) याद कर लिए थे  ;
प्याज चौदह रूपये किलो
और आलू दस
धनिया मिर्ची टमाटर को न माने सब्जी
तो हम लाये हैं करेला भिन्डी बरबट्टी, बस.
आजकल सब्जियों के भाव के बारे में कुछ कहना ही नहीं है.  कुछ भी 'भाव' नहीं उमड़ रहे.  वजह अब सभी सब्जियां बारहों महीने उपलब्ध हैं उनके अब कुछ भाव रह नही गए हैं. नियत अवधि के पहले (प्री मैच्योर)  ही 'बड़े' हो रहे हैं.
बड़े बनने के चक्कर में सब्जी उत्पादक 
विज्ञान के चमत्कारों से प्रभावित, 
जन साधारण के लिए 'धीमे जहर' का
रासायनिक मिश्रण का इंजेक्शन सब्जी भाजी में लगा  
इनका बचपना छीन रहे हैं और
बना रहे हैं बाज़ार में बिकाऊ 
कह रहे हैं, क्या करना है? रख के अपने
हाड़ मांस को ज्यादा दिन टिकाऊ.
अच्छा है, ऐसे स्लो पॉयजन ले के
पता भी नहीं चलेगा, दिखने लगेगा
ऊपर जाने का रास्ता
मंहगाई की मार से
आतंकी, नक्सली के हथियार से
आजकल प्रचलित  'शिष्टाचार' से
तेरा कभी नहीं पड़ेगा वास्ता.
जय जोहार.........

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

हरियाली की आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं

आप सभी को हरियाली की बहुत बहुत शुभकामनाएं
जादू टोना मन्त्र-तंत्र,  कलजुग के सारे यंत्र-तंत्र
रख सद्भाव करें जागृत, आवें काम सर्वदा जनहित   
आपदाओं को दूर करे, आतंकी अत्याचारी डरे 
विश्व-शांति मिशन हो अपना, जन जन अलख जगाएं
बंद कर प्रकृति से खिलवाड़, पर्यावरण बचाएं 
चहुँ ओर हरियाली छाये चहुँ ओर हरियाली छाये
जय जोहार......

सोमवार, 9 अगस्त 2010

अभी बहुत दिन ले रैहौं सबले दुरिहा

सभी मित्रों को क्षमा प्रार्थना के साथ नमस्कार.  कुछ परिस्थितियाँ ऐसी निर्मित हो जाती हैं जो कुछ दिनों के लिए अपनों से अलग कर देती हैं  जुड़ने के लिए समय लग जाता है. इसके अलावा एक वजह ब्लॉगर मित्रों से अलग होने का यह भी है कि अभी अंतरजाल की बुनाई कहीं से टूट गई है और यही वजह है अभी लेखनी बंद है.  आज कहीं ज़रा  सा वक्त मिला है सो  अपनी इन पंक्तियों से इन्हें क्षेत्रीय बोली में व्यक्त करने का प्रयास किया है:-
चाहे महल हो, बंगला हो
चाहे बनवाथें अपन बर कुरिया
चाहे बेटी ल भेजे बर परै दुरिहा
चाहे घर मा लाव  बहुरिया
बने बने माड़ गे गाड़ी  अपन पटरी माँ त  ठीक हे
नई तो कर दे थे अपन ला अपने च ले दुरिहा
सारांश यह है कि अभी हम सरकारी आवास छोड़ के अपने  ठौर (जुन्ना कुरिया) में रंग रोगन करके रहने चले गए हैं. इस वजह से सारे टेलीफोन कनेक्शन अंतरजाल (इन्टरनेट) कनेक्शन टूट चुका है. अभी जुड़ने में वक्त लगेगा. तब तक अवसर मिलने पर ही मुलाक़ात हो सकेगी.
जय जोहार........

बुधवार, 28 जुलाई 2010

तीन दिनों की बारिश

तीन  दिनों की बारिश

प्रांत को जलमग्न किया 
किसान हुए कहीं खुश
झुग्गी  झोपडी के वासिंदों को  
क्यों तुने अर्धनग्न किया
(२) 
मांग बहुत है पानी की 
है यह किसी से छुपा नही
पर यह क्या!  तीन दिनों से 
हो रही बारिश 
जन जीवन हुआ अस्त व्यस्त
बीच बीच में क्यों रुका नहीं
(३)
आया सावन झूम के 
बिदा हुआ आषाढ़ 
जल स्तर थोड़ा बढ़ो गयो
नदी नालों में आयो बाढ़ 
नदी में आयो बाढ़,  उतर जइयो---
प्राकृतिक आपदाओं, भूखमरी,
बेरोजगारी, घोटालों,  भ्रष्टाचारों
इनकी बनी रहे जो बाढ़,
क्या करियो भइयो?????
जय जोहार .......

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागू पाय। बलिहारी आपनी गोबिन्द दियो बताय॥

                              हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा का दिन गुरु की आराधना का है। यह अवसर गुरु-शिष्य परंपरा की महत्व को बताता है। इस वर्ष यह पुण्य अवसर २५ जुलाई को आया । शास्त्र कहते हैं गुरु से मंत्र लेकर वेदाध्ययन करने वाला शिष्य ही साधना की योग्यता पाता है। गुरु हमेशा वंदनीय और पूजनीय होते हैं।  व्यावहारिक जीवन में भी पाते हैं कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या सहायता के किसी कार्य या परीक्षा में सफलता कठिन हो जाती है। किंतु गुरु मिलते ही लक्ष्य आसान हो जाता है। सफलता कदम चूमती है। इस प्रकार गुरु शक्ति का ही रुप है। वह किसी भी व्यक्ति के लिए एक अवधारणा और राह बन जाते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति मनोवांछित परिणाम पा लेता है। इस प्रकार बगैर गुरु बनाए कोई साधना सफल नहीं होती। कहते हैं ईश्वर के कोप से गुरु रक्षा कर सकते हैं। पर जब गुरु रुष्ट हो जाए तो असफलता और कष्टों से ईश्वर भी रक्षा नहीं कर पाता। यही कारण है कि गुरु का महत्व भगवान से ऊपर बताया गया है। गुरु ही हमें जीवन में अच्छे-बुरे, सही-गलत, उचित-अनुचित का फर्क बताता है। जो सफल जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। गुरु ही हमें गोविन्द यानि भगवान से मिला सकता है। सद्गुरु कबीरदासजी ने इसीलिए कहा है-
गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागू पाय।  बलिहारी आपनी गोबिन्द दियो बताय 
                          यह पवित्र तिथि व्यास पूर्णिमा के नाम से भी प्रसिद्ध है। अनेक धर्मावलंबियों की यह जिज्ञासा होती है कि क्यों गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसका जवाब भी पौराणिक मान्यताओं में मिलता है।
                               पहला कारण इस दिन हिंदू धर्म के प्रमुख ऋषि वेद व्यास का जन्मोत्सव मनाया जाता है। साधारणत: धर्म से जुड़े लोग ऋषि वेद व्यास को मात्र महाभारत का रचनाकार मानते हैं। किंतु यह अनेक लोग नहीं जानते कि हिन्दू धर्म के पवित्र धर्म ग्रंथ, जिनमें सभी वेद, पुराण शामिल है, का संकलन और संपादन ऋषि वेद व्यास ने ही किया। इनमें प्रमुख रुप से चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के साथ, १८ पुराण, महाभारत और उसका एक भाग भगवद्गीता शामिल है। उन्होंने पुराण कथाओं के द्वारा वेद सार और धर्म उपदेशों को आम जन तक पहुंचाया।
                          व्यास पूर्णिमा का यह शुभ दिन मात्र वेदव्यास के जन्मोत्सव दिवस ही नहीं है, बल्कि मान्यता है कि इसी पावन दिन वेद व्यास ने चारों वेदों का लेखन और संपादन पूरा किया। इस कारण भी यह व्यास पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है।
                          ऋषि वेद व्यास ने श्रीगणेश की सहायता से धर्मग्रंथों को पहली बार भोजपत्र पर लिखा। इसके लिए उन्होंने एकांत स्थान चुना। इस दौरान उन्होंने अपने शिष्यों को भी मिलने और किसी भी तरह से बाधा डालने से मना किया। इसके बाद उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान और ध्यान से भगवान श्री गणेश के साथ धर्म और जीवन से जुड़ी महान शिक्षाओं और उपदेशों को धर्मग्रंथों में लिखित रुप में उतार दिया। जो पूर्व में मात्र सुने जाते थे। ऋषि वेद व्यास, वेद और धर्म के रहस्यों को पहली बार लिखित रुप में जगत के सामने लाए। जिससे जगत ने धर्म और ब्रह्म दर्शन को गहराई से समझा। उनके द्वारा बताया गया धर्म दर्शन अमर और अनन्त है। जो पुरातन काल से ही जगत को जीवन में धर्म का महत्व बता रहा है।

                              उपरोक्त दो कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के मनाने के बारे में बताया गया है. पुराणों में विद्योपार्जन के लिए सही स्थान गुरुकुल को माना गया है जहाँ गुरु और शिष्य की क्या भूमिका होती थी सर्व विदित है. पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करना. गुरु की सेवा और सबसे बड़ी बात माँ बाप से कोई सहायता भी प्राप्त न करना यहाँ तक कि भोजन भी भिक्षा के द्वारा प्राप्त किये अन्न से स्वतः पकाकर ईश्वर और गुरु को भोग लगा ग्रहण करना. पुराणों मे  उल्लेख है कि यह शिक्षा अथवा कहें विद्या ग्रहण करने का समय अत्यंत कठिन होता था. 
                               गुरु शिष्य का वर्तमान स्वरूप क्या है? लाखों रुपये शायद करोड़ों कहें तो ज्यादा अच्छा होगा भव्य पंडाल सज्जा, गीत संगीत के साथ बड़े बड़े संतों का प्रवचन. कोई संदेह नहीं अध्यात्म का वृहत अध्ययन किये होते हैं. जिव्हा  पर  माँ सरस्वती बैठी होती हैं. लाखों की संख्या में भक्त गण कहें या श्रोता, भेद नही किया जा सकता,  बैठकर प्रवचन का आनंद ले रहे हैं. माँ लक्ष्मी कृपा पात्र सहज में, माध्यम वर्गीय कुछ और परिश्रम कर दीक्षा प्राप्त करते हैं, मिल जाते हैं उन्हें गुरु और गुरु को मिल जाता है शिष्य.  गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक "क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं"? (स्वामी रामसुखदास जी द्वारा लिखित) मैंने पढ़ी. बहुत ही सुन्दर ढंग से 'गुरु'' की व्याख्या की गई है. उनमे से कुछ अंश यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा.  
भगवत्प्राप्ति गुरु के अधीन नही
                                जिसको हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह परमात्मतत्व एक जगह सीमित नहीं है, किसी के कब्जे में नहीं है, अगर है तो वह हमें क्या निहाल करेगा? परमात्मतत्व तो प्राणिमात्र को नित्य प्राप्त है. जो उस परमात्मतत्व को जाननेवाले महात्मा हैं, वे न गुरु बनते हैं, न कोई फीस (भेंट) लेते हैं, प्रत्युत सबको चौड़े बताते हैं.  जो गुरु नही बनते, वे जैसी तत्व की बात बता सकते हैं, वैसी तत्व की बात गुरु बनने वाले नहीं बता सकते. 
                                 सौदा करने वाले व्यक्ति गुरु नहीं होते. जो कहते हैं कि पहले हमारा शिष्य बनो, फिर हम भगवत्प्राप्ति का रास्ता बताएँगे, वे मानो भगवान् की बिक्री करते हैं. यह सिद्धांत है कि कोई वस्तु जितने मूल्य में मिलती है, वह वास्तव में उससे कम मूल्य की होती है.  जैसे कोई घड़ी सौ रुपयों में मिलती है तो उसको लेने में दूकानदार के सौ रूपये नहीं लगे हैं. अगर गुरु बनाने से ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरु से कम दामवाली अर्थात गुरु से कमजोर ही होगी. फिर उसमे हमें भगवान् कैसे मिल जायेंगे? भगवान् अमूल्य हैं. अमूल्य वस्तु बिना मूल्य के मिलती है और जो वस्तु मूल्य से मिलती है, वह मूल्य से कमजोर होती है. इसलिए कोई कहे कि मेरा चेला बनो तो मैं  बात बताउँगा, वहां हाथ जोड़ देना चाहिए. समझ लेना चाहिए कि कोई कालनेमि है.! नकली गुरु बने हुए कालनेमि राक्षस ने हनुमान जी से कहा था----
   सर मज्जन करि आतुर आवहु!दिच्छा देऊँ ज्ञान जेहिं पावहु !!
यह प्रसंग है राक्षस कालनेमि द्वारा हनुमान जी को मोहित करने के इरादे से कपट रूप से मुनि का वेश धारण करना (लंका काण्ड दोहा क्रमांक ५७ चौपाई ४ जिसमे हनुमान जी उस मुनि से जल मांगते हैं तो अपना कमंडल देता है और तब हनुमान जी कहते हैं इतने क्या उनकी प्यास बुझेगी तब वह बड़ी ही कुटिलता से हनुमान जी से कहता है "तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूं., जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो!! 
                                 उसकी पोल खुलने पर हनुमान जी ने कहा कि पहले गुरु दक्षिणा ले लो, पीछे मन्त्र देना और पूंछ में सिर लपेटकर उसको पछाड़ दिया. 
                                   कहने का अभिप्राय गुरु के बिना मुक्ति नही है यह गलत है. 
जय जोहार........

रविवार, 25 जुलाई 2010

                         जय गुरुदेव 
आज गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर मेरे  ब्लॉग - गुरुवों को हार्दिक नमन वंदन. 
  जय जोहार    

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आंकड़ों का खेल

आंकड़ों का खेल 
यह पोस्ट केवल  आंकड़ों के एक  संयोग के लिए लिखी जा रही है. दरअसल आज दो संयोग एक साथ बना. एक तो लगातार तीन पोस्ट पर अजीज मित्रों के १३-१३ आशीर्वचन प्राप्त हुए. भाई न मेरे पास पुस्तकों का संग्रह है न ही ज्यादा वक्त दे पाता हूँ लेखन आदि में. जो कुछ लिखता हूँ आप लोगों से ही सीख कर. अतः ये आंकड़ों के संयोग पर ये जुमला याद आ गया:- 
तीन तेरा नौ अट्ठारा। अटकर पंचे साढ़े बारा॥   जो मेरे ऊपर अक्षरस: लागू होता है। 
(२)
आज अनुसरणकर्ताओं की संख्या 36 हो गई है। भगवान से प्रार्थना है हमारा किसी से छत्तीस का आंकड़ा न रहे।              
आज मूड मे यह सब लिख बैठे। कृपया सीरियसली न लेवें। 
जय जोहार ............

आ गया है क्या जमाना.

विकासशील(विनाशशील*) देश करने लगते हैं                        
नक़ल विकसित देशों की संस्कृति की
मसलन नाईट पार्टी, डेटिंग, जश्न का जोश
सुरा सुंदरी के संग
हर रोज होता है कुछ न कुछ 'डे'
मदर्स डे, फादर्स डे वैगरह वैगरह
कुछ इस तरह है इनके रहन सहन का ढंग.

वतन छोड़ जाते हैं
बस जाते हैं पाश्चात्य देशों में
अंग्रेजी का शब्द 'फॉरेन' बन गया है  पर्याय
अमेरिका, कनाडा, जर्मनी
ऑस्ट्रेलिया आदि देशों का
रहने लगे हैं जहाँ इस देश के
हर कोने के बासिन्दे

लौटते हैं ये अप्रवासी नागरिक
अपने वतन को, बजाते हैं डफली
'फॉरेन' की सड़कों का, यातायात
के नियमों के पालन में कड़ाई का

क्यों नहीं कर पाते
हम इन चीजों का अनुसरण
नियमों की लापरवाही
रेलम पेल आवाजाही
हर दिन दुर्घटना,
किसी न किसी का मरण

कोसते हैं सरकार को
फिफ्टी फिफ्टी.........
अरे अरे ज्यादा हो गया
चलो फोर्टी सिक्सटी  के
सौदे पर काम कर रहे ठेकेदार को
अभी अभी नयी सड़क बनाई गयी है
सड़क तो तब्दील हो गयी है
देहातों में चलने वाले बैलगाड़ी के "मार्ग" में
क्या करें फिर भी चलना पड़ता है
नही रहता मालूम कब किसकी शामत आ जाय

कुछ अपनी खामियों की ओर नजर डालें
यातायात के नियमों के मुताबिक
निर्धारित है अलग अलग माल वाहक गाड़ियों की
भार वहन करने की क्षमता
यात्री गाड़ी में यात्रियों की संख्या का  पैमाना
स्वतन्त्र हैं..... ना..ना ...... स्वछंद हैं
कितनो ने इसे अपनाया कितनो ने माना?
आ गया है क्या जमाना.

(इस देश को क्या कहेंगे? विनाशशील या बिनास शील ?  अभी तो रोज की घटनाओं दुर्घटनाओं को देखकर लगता है क्या ज़िन्दगी है. आतंकवाद. उग्रवाद नक्सलवाद आदि आदि से निपटते निपटते कई निपट गए. जहाँ देखो तबाही मंची हुई है
ऐसा कौन सा दिन है इन चीजों की खबरों से समाचार पत्र नहीं सना रहता. कह सकते हैं ना बिनासशील देश???
जय  जोहार .....

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कौन नहीं करेगा निछावर इस पर अपना प्यार

                 (१)                                                                         
निष्कपट निश्छल  चेहरा 
हिलते हैं, ओष्ठ अधर दोनों 
न बोल पाते हुए भी 
अपनी प्यारी सूरत औ आँखों के भावों से
कह जाता है सब कुछ
हंसता है हंसाता है, रोता है रुलाता है  
खींच लेता है सारी दुनिया अपनी ओर 



कौन नहीं करेगा 


निछावर
इस पर अपना प्यार 
नही रहता कोई  भेद भाव; 
उंच- नीच,  अमीर- गरीब का 
क्षण भर के लिए ही सही. 
(2)
गुजरता है पल पल परिवर्तन के दौर से 
करवटें बदलना, पेट के बल सोना (पलटी मारना} 
घुटने के बल चलना,  धीरे धीरे रेंगना 
बोलना भी सीख गया है, 
तोतली बोली हंसाती है सबको  
रट्टू तोता होता है   
समझ नहीं है कौन क्या बोल रहा है
दुहराता है सुने गए शब्द 
क्या मालूम उसे यह गन्दी  गाली है 
शुरू होती  है माँ- बाप  की परीक्षा
उसे अच्छे संस्कार देने की.
(3)
कदम रखता है स्कूल की दहलीज पर
छिन जाती है आजादी 
दिन भर घूम घूम कर 
खेलने की, धमाचौकड़ी मचाने  की.
लद जाता है बस्ते की बोझ से
(४)

शुरू हो जाती है प्रतिस्पर्धा की भावना
पांचो अंगुलियाँ एक समान नहीं होती
फिर भी बच्चों से ज्यादा रहते हैं 
पालक परेशान, डूबे रहते हैं इस सोच में 
कहीं क्लास में बच्चा पिछड़ तो नहीं रहा  
घट तो नहीं रही है  उनकी शान
बालक की क्षमता है तो कोई बात नहीं
वरना बच्चे के मन में  जड़ जमाता  अवसाद 
बना लेता है   अपना ग्रास 
उसकी  सारी खुशियों को 
दिल दहल जाता है जानकर परिणति इसकी; 
दिमागी संतुलन खो जाना या अपनी जान गँवा बैठना.
(५) 
मिल चुकी है पढ़ाई से मुक्ति 
येन केन प्रकारेण ख़तम हुआ 
अर्थोपार्जन करने के साधन 
जुटाने का दौर, जुगाड़ लेता है 
अपने रहने का ठौर   
गुजरती है  जिन्दगी आलिशान बंगलों में  
कहीं झोपडी में ही सही 
पसीने की गाढ़ी कमाई से कर रहा है
अपना जीवन यापन मिल रहा है खाने
को दो जून की रोटी,  मन ही मन परमपिता 
परमेश्वर से करते रहता है विनती 
कोई छीन न  ले थाली से खाने के लिए 
उठाया हुआ कौर. 
इन तमाम घर गृहस्थी के चक्कर में फंसे 
रहकर  कभी फरमाया है आपने गौर
क्या अच्छा होता फिर से बन जाते हम बच्चे 
विचरते उस दुनिया में जहाँ न कोई बेईमानी है 
न मक्कारी है फरेबी है न  भ्रष्टाचार की बीमारी  है 
जय जोहार......

सोमवार, 19 जुलाई 2010

कमान से निकला तीर जुबान से निकले शब्द वापस नही आते

(१)
मनुष्य जन्म लेता है, 
पग रखता है धरती पर 
रिश्ते- नातों  की श्रृंखला में
जुड़ जाती है एक और कड़ी.
(२)
रिश्तों में खटास पैदा होने में नहीं लगती देर 
लगा दिए जाते हैं सगे सम्बन्धियों पर आरोप
कही सुनी बातों को लेकर बिना दरयाप्ति के
या होके  पूर्वाग्रह से ग्रसित
क्या कहें इसे गलती इंसान के  सोच की 
या समय का फेर
हो जाती है कहा सुनी 
खींच जाती है सबंधों के बीच
दरार की रेखा 
सत्य है,  कमान से निकला तीर
जुबान से निकले शब्द वापस नही आते
यह सभी ने है देखा 
(४)
देखता है मुड़कर पीछे
करता है अपने आप से सवाल
बीता वाकया क्या जायज था 
अंतरात्मा से निकलती है आवाज
नही!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
होने लगती है आत्मग्लानि 
झुलस रहा है पश्चाताप की आग में
(५)
पता चलता है इस बात का आरोपित व्यक्ति  को 
तत्पर हो उठता है बढ़ाने को सामीप्य 
मानके उसका कृत्य क्षम्य 
प्रतीक्षा में है  मिलन के बेला की 
ख़त्म होती है इन्तेजार की घड़ियाँ
दिला जाता है आभास जुड़ने वाली
है फिर से ये रिश्ते नातों की कड़ियाँ 
मिलती है नजरें छलक पड़ता है नयनो से नीर
स्वीकारना अपनी गलती हर लेता मन का पीर 
....ईश्वर से प्रार्थना करते हुए, किसी के प्रति किसी के  मन में खटास  नही आनी चाहिए
जय जोहार.....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

समाज और समिति आज के परिवेश में

आज हमारा समाज विभिन्न जातियों में, वर्गों में बंटा हुआ है.  समाज बना कैसे? जाति बनी कैसे? सभी जानते हैं. वर्ण व्यवस्था अभी की नहीं है, सदियों पुरानी है.  चार आश्रम, चार वर्ण कौन नहीं जानता. वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर की गयी थी. जन्म से लेकर मरण के बीच चार आश्रम से व्यक्ति को गुजरना पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास. प्रत्येक वर्ण का एक समाज होता  भले ही एक ही वर्ण में कई उपजातियां हो. पूरे समाज के कल्याण के लिए एक समिति/संगठन बनता था. बन तो अभी भी रहा है किन्तु आज के परिवेश में इनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है.  आज कल सह शिक्षा,  शासकीय अथवा गैर शासकीय विभागों/संस्थाओं में विभिन्न पदों पर पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा  मिलाकर  कार्य करना समाज नाम की चीज को धीरे धीरे ख़तम करते जा रहा है. समिति याने अब समाज की इति. ऐसा क्यों लिखा जा रहा है? हमने अभी अभी अपने समाज में यह देखा है कि शादी ब्याह के मामले में अब बच्चे अपने माँ बाप के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि माँ बाप कुछ बोल ही नहीं सकते .  समाज जाय चूल्हे में. क्या मतलब है समिति का. ऐसा नही है कि समाज में भी पढ़ी लिखी लड़कियां या लडके नहीं हैं. मगर एक ही कार्यालय में लडके लड़की दोनों कार्यरत होने से प्रेम प्रसंग शुरू हो जाता है और जिस प्रकार  बिल प्रस्ताव या अधिसूचना पारित करवाने में सम्मानीय  राष्ट्रपति का  मुहर लगाना जरूरी होता है, और उन्हें मुहर लगाना ही पड़ता है, उसी प्रकार चले आते हैं माँ बाप के पास मुहर लगवाने. और ज्यादा हुआ तो उसकी भी जरूरत नहीं समझते. दरकिनार कर दिए जाते हैं माँ बाप.  मानता हूँ "वसुधैव कुटुम्बकम" याने सारा संसार ही परिवार है ऐसा समझना चाहिए. एक दूसरे का सहयोग करने के मामले में गलत नहीं है. पर जहाँ तक एक दूसरे में तालमेल बिठाने का, अपने समुदाय के संस्कारों को समझने समझाने  का प्रश्न  है,  ऐसा हो पाना जरा मुश्किल ही लगता है .  अब  जब  यह  प्रचलन में आ ही चुका है तो  वाकई वह दिन दूर नहीं जब समाज का अस्तित्व ही ख़तम हो जावेगा.
जय जोहार........

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ब्लॉग के नशे में चूर ये नाचीज है

और कुछ  नशे के आदी  नही,
ब्लॉग के नशे में चूर ये नाचीज है 
क्योंकि ब्लॉग मे लिखे गए 
हरेक ब्लोगर के लेख उनकी कवितायें 
बड़ी   जायकेदार
और  लजीज हैं
ब्लॉग के सारे मित्र प्रत्यक्ष
हो या परोक्ष, सभी अजीज हैं.


मगर ये कमबख्त 'टाइम'
कहता है 'मैं समय हूँ'
मुझे तुम्हारी परवाह नहीं
है तुम्हे मेरी परवाह
गर  कर ली तुमने  मेरी कद्र
जिंदगी मजे से जियोगे
लोग करेंगे, वाह वाह 
थोड़ा भी चूके 'अवसर'
करते रह जाओगे आह! आह!


करता हूँ यत्न
पोस्ट बाकायदा सभी के पढूं
कुछ अपनी रचना भी गढ़ूं
'समय' को रखते हुए ध्यान
गढ़ पाता नहीं केवल ज्यों की
त्यों रख देता हूँ 
और मुफ्त में अपने अजीज मित्रों 
के आशीर्वचन टिपण्णी के रूप
में ले लेता हूँ 


कुछ सूझ नहीं रहा था 
लिख दिया ये लाइना चार 
अरे कल के रिक्त स्थान को 
भर दें  मेरे यार. 
जय जोहार...... 

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

"हरी थी मन भरी थी राजा जी के बाग़ में दुशाला ओढ़े खड़ी थी"


"हरी थी मन भरी थी 
राजा जी के बाग़ में 
दुशाला ओढ़े खड़ी थी" 
पहेली बुझाते थे,  बुझाते हैं,  बुझाते रहेंगे 
बच्चों को रिझाते थे, रिझाते हैं,  रिझाते रहेंगे 
इस मुल्क के गरीब 
 आग में सेंक ये भुट्टे,  पेट की 
आग बुझाते थे, बुझाते हैं,  बुझाते रहेंगे. 
वाह रे ये भुट्टे, जिसमे होती है प्यारी जुल्फें, 
ऊपर लिखी लकीर के दो लफ्ज़; 'भुट्टे' व 'जुल्फें' 
इक नाम '-----------------------' 
 की याद दिलाते थे,  दिलाते हैं,  दिलाते रहेंगे. 
कृपया रिक्त स्थान की पूर्ति करें. 
जय जोहार........

सोमवार, 12 जुलाई 2010

दाम्पत्य जीवन में दरार, ईश्वर ने कराया ये कैसा करार

(१)
हे श्रृष्टि के रचयिता 
जगत के आधार 
सगुण रूप साकार हो 
  या निर्गुण रूप निराकार
कहते हैं, आपके द्वारा ही 
बना दी गई होती है 
पति पत्नी की जोडी
ताज्जुब होता है 
आपकी अदालत में कराये 
गए इस करार में फिर क्यों 
पड़ जाती है दरार 
(२)
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के 
एक पत्नीव्रत धारी होने का सुबूत 
 छद्म सुंदरी मायावी शूर्पणखा  
का प्रणय निवेदन सहजता से ठुकराया जाना 
किन्तु माता सीता की अग्नि परीक्षा 
आज की नारी के लिए मुश्किल हो गया है पचा पाना 
प्रश्न चिन्ह बन गया है गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा 
श्री राम चरित मानस में इस प्रसंग का लिख़ा जाना.
(३) 
दोस्त जिसे कहते हैं मित्र
यह रिश्ता होता है विचित्र 
एक दूसरे के सामने अपने 
अंतर्मन की व्यथा का उकेर देते हैं चित्र.
दोस्ती की परख होती है सुख दुःख में
एक दूसरे का काम आना 
किन्तु
पति पत्नी के बीच हो यदि उलझन  
कभी न पड़ें इनके बीच यह हमने अच्छे से है जाना
(४)
'शक' का कोई इलाज नहीं 
यह कैंसर से घातक बीमारी है 
तकनालोजी  व विज्ञान की कृपा से
कंप्यूटर  में अंतर्जाल की सबको चढ़ी खुमारी है.
 (५)
अंतरजाल की माया अद्भुत कहीं वरदान है तो कहीं अभिशाप 
कहीं ऑरकुट, तो कहीं फेस बुक, जहँ क्या क्या  नहीं होता!! बाप रे बाप 
कंवारे कंवारी की नादानी  की हरकत फिर भी समझ है आती 
शादी शुदा लोगों की नासमझी  घर में  कैसी क़यामत लाती 
(६)
एक सच्ची घटना का करना चाहूँगा मैं जिक्र
राह से ज़रा भटक रहे हैं मेरे प्यारे से एक मित्र 
उन्हें खींच रही है  एक विवाहिता, अपनाकर शूर्पणखा का चरित्र  
धन्य हैं महाकवि मैथिलीशरण जी, जिन्होंने  उस छद्म  'कामिनी' के रूप को
अपनी कविता की  पंक्ति में ऐसा सजाया; 
"थी अत्यंत अतृप्त वासना दीर्घ दृगों से झलक रही"
उस विवाहिता के इस रूप ने शायद मेरे मित्र का पथ भटकाया 
देख रहा हूँ  उम्र के इस  पड़ाव में स्वतः के घर 
पति पत्नी के प्रेम की मजबूत दीवार में पड़ने लगी है दरार 
हे ईश्वर! अपनी अदालत में इन दोनों के बीच कैसा कराया था तूने करार?
जय जोहार..........