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रविवार, 14 फ़रवरी 2010

मूक होई बचाल, पंगु चढ़इ गिरिबर गहन

आज मानव सभी क्षेत्रों में बाजी मार रहा है बजाय मृत्यु पर विजय पाने के. और मृत्यु पर विजय न पाने के कारण ही  प्रत्येक व्यक्ति स्वीकारता है कि अपने ऊपर कोई परम सत्ता है. वाकई श्री राम चरित मानस की एक एक चौपाई, दोहा, सोरठा कितना सारगर्भित है यदि उसकी व्याख्या सही अर्थों में की जाय. यहाँ पर ईश्वर की कृपा बताते हुए कहा गया है कि उनकी कृपा से गूंगा बोल सकता है लंगड़ा पहाड़ पर चढ़ सकता है. यह अतिशयोक्ति नहीं है. केवल शाब्दिक अर्थ पर न जाएँ.  ईश्वर कृपा कब होती है जब मनुष्य कुछ करने को मन में ठान लेता है. याने जहाँ चाह वहाँ राह. हम लोगों ने देखा है दूर-दर्शन में अपंग व्यक्ति भी क्या क्या करतब नहीं दिखलाते. चलिए करतब दिखने की बात तो हरेक पर लागू नहीं कर सकते पर यह तो हो ही सकता है कि आज ऐसे व्यक्ति भीख मांगने के बजाय जीवन यापन के लिए कुछ कर तो जरूर सकते हैं. हम अभी अभी यात्रा पर गए थे दक्षिण भारत की.  रेल यात्रा थी. देखा जितने भी खिलौने, फल, इत्यादि बेचने आ रहे थे वे किसी न किसी प्रकार से विकलांग थे. कोई अँधा था तो कोई लंगड़ा. अपने क्षेत्र में देखते हैं कि ऐसे व्यक्ति केवल भीख मांगते नजर आते हैं. याने इधर हर व्यक्ति चाहता है कि बिना परिश्रम के सब कुछ हासिल हो जाय. अरे विकलांग व्यक्ति की बात तो छोडिये. यहाँ तो मेहनत कर सकने वाला व्यक्ति भी भीख मांगता  नजर आता है .  खैर हमने यात्रा के दौरान यह दृश्य देखा तो सीधे हमारा ध्यान श्री राम चरित मानस के बालकाण्ड के सोरठे की इस पंक्ति "मूक होई बाचाल....." पर चला गया और अपने आप को इस बात को यहाँ लिखने से नहीं रोक पाए.

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