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शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मनुष्य की तुलना जीव जंतुओं/पशु पक्षियों से करना कहाँ तक उचित??

राम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है, "बड़े भाग मानुष तन पावा". सही है जैसा की शास्त्रों में लिखा है यह मानुष तन चौरासी लाख योनियों से गुजरने के पश्चात प्राप्त होता है.  इस योनि का लाभ वेद पुराण शाश्त्रों के हिसाब से सदाचरण से कर्म करते हुए ईश्वर में आस्था रख मोक्ष प्राप्ति ही है. अर्थात जन्म-मृत्यु की पुनरावृत्ति से छुटकारा. यह मनुष्य योनि ही ऐसी योनि है जिसमे हम और आप बुद्धि के साथ साथ विवेक के भी मालिक हैं,  तर्क-वितर्क करने की क्षमता है हममे. देश काल परिस्थिति के अनुसार आपने आप को समायोजित कर सकते हैं.  किन्तु हम किसी व्यक्ति के आचरण या व्यवहार की तुलना जीव जंतुओं से, पशु पक्षियों से भी कर बैठते हैं. पशु पक्षियों, जीव जंतुओं की प्रकृति अथवा स्वभाव तो ईश्वर द्वारा निर्धारित और निश्चित है पर मनुष्य स्वभाव को ईश्वर ने परिवर्तनशील बनाया है ताकि वह देश काल  परिस्थिति के मुताबिक अपने आप को ढाल  सके और सन्मार्ग पर चलते हुए अपनी जीवन नैया पार कर सके. हम अक्सर देखते हैं कि मनुष्य के अवगुणों की तुलना जीव जंतुओं, पशु पक्षियों से की जाती है. क्या यह मनुष्य का नहीं उन जीव जंतुओं का पशु पक्षियों का अपमान नहीं है जो कम से कम अपनी  प्रकृति,  स्वभाव को लांघते तो नहीं.  उदाहरण के लिए "कुत्ते कि पूंछ टेढ़ी है तो टेढ़ी ही रहेगी" याने मनुष्य अपना स्वभाव नहीं बदल सकता, अरे भाई कुत्ते  कि पूंछ  तो उसकी शारीरिक संरचना के अनुसार है,  टेढ़ी ही रहनी है. मनुष्य क्यों नहीं बदल सकता अपना स्वभाव, अपनी सोच???..........
जय जोहार
                             

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