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सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

इत उत चित दौड़ाइ बिनु


"साहित्य का "सा" नहीं जानू 
अपने को कवि कैसे मानू"
      इस बात का आभास अंतरजाल की इस आभासी दुनिया में प्रशंसकों की प्रशंसा के बीच खोये रहने के कारण नहीं हो पाया था। कितनी भी उम्र हम पार कर लें किसी न किसी रूप में "गुरु"/मार्ग दर्शक की आवश्यकता पड़ती है। धन्य हैं अरुण निगम भैया। कुछ ऐसे टिप्स दिए कि अपने आप को निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखने से नहीं रोक पा रहा हूँ। साथ ही माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के दौरान हिंदी व्याकरण में बताये गए सूत्र की भी पुनरावृत्ति हो गई।
शबद संयोजन मात्रा कविता का आधार।
याद न आवे सूत्र यदि, रचना सब बेकार।।
सूत्र संग यह होय, सही भाव प्रकटीकरन।
समझ सके हर कोय, इत उत चित दौड़ाइ बिनु।।
जय जोहार.............

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