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सोमवार, 19 नवंबर 2012

मरते ही माला पहने चित्र

             ईश्वर/अल्लाह/गुरुग्रंथ साहिब/गॉड, जिन्हें भी हम सर्वोपरि सत्ता माने, उनकी ही रचना है यह जगत। प्रत्येक धार्मिक ग्रन्थ अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्या करता है। श्री रामचरित मानस में स्पष्ट रूप से लिखा है;
"बड़े भाग मानुस तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक संवारा।। 

             सारांश में यदि जीवन मरण के चक्र से मुक्ति पाना है तो मनुष्य रूप में जन्म लेकर ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, सदाचार परोपकार के माध्यम से। प्रायः दिखाई पड़ता है कि जीते जी एक दूसरे के प्रति मन में कितनी कटुता भरी होती है चाहे वह माँ-बाप भाई-बहन आस पास के लोग कोई भी क्यों न हों किन्तु उनके निधन पर अनायास आंसू छलक पड़ते हैं, अरे छलकते नही तो कम से कम आँखें नम तो हो ही जाती हैं। हम, उस माँ के प्रति भी जिसने अपने कोख में 9 महीने रख तीव्र प्रसव वेदना सहकर, इस धरा पर अवतरित किया और उस पिता के प्रति भी जिसने हमारे भविष्य संवारने के लिए क्या क्या नहीं किया उसके प्रति भी निष्ठुर हो जाते हैं। अपनी सुख सुविधा के ख्यालों में वृद्ध माता को अपने घर में स्थान देना पसंद नहीं करते। दिखाने लगते हैं वृद्धाश्रम का रास्ता। हाँ एक बात अलग है यदि कोई बन्दा किसी समूह का जबरदस्त नेतृत्व करने वाला निकल गया, परिवार में, समाज में, गाँव में, तहसील में, जिले में, प्रांत में और फिर राष्ट्र में तो बात ही क्या। और वास्तव में उसका योगदान सबके हित में दिखाई पड़ने लगे तो सोने में सुहागा। फिर भी जीते जी वे अपने विरोधियों को फूटी आँख नहीं सुहाते। किन्तु जैसे ही हो जाता है ऐसे लोगों का निधन विरोधी भी सर्वप्रथम अपने फायदे को निहारते हुए दिवंगत व्यक्ति के प्रति संवेदना सहानुभूति जताते नहीं थकते। अभी हाल की घटना दूरदर्शन के माध्यम से देखने से उक्त विचार मन में उमड़ने लगे और मष्तिष्क में उभर आईं ये चंद पंक्तियाँ: 
                                        (1)
 जीवन-मरण सत्य शाश्वत 
है दुनिया की सोच विचित्र
जीते जी लगते बोझ धरा का
मरते ही माला पहने चित्र
(2)
मानुस तन कर प्रवेश आत्मा,
विकार-जाल में फंस जाती
भौतिक सुख उपभोग-लालसा
दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती
(3)
भोग विलास की चाह कराये 
तरह तरह के पाप
अपनी सुख सुविधा खातिर 
त्याग देत माँ बाप 
(4)
अंतहीन स्वारथ-सागर में 
रह रह डुबकी लगाय 
परमारथ में ढूंढें स्वारथ
सोचें कैसे पुण्य कमाय 
(5)
शायद त्याग तन सूक्ष्म अणु
रहि नहि जात मलीन
 लख जन देत श्रद्धांजलि 
होय पंच तत्व-विलीन 
जय जोहार ....

3 टिप्‍पणियां:

प्रेम सरोवर ने कहा…

बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट पर आपका हार्दिक स्वागत है।

संध्या शर्मा ने कहा…

सदाचार, परोपकार ही मनुष्य के लिए सर्वोत्तम मुक्तिमार्ग है. परमार्थ में स्वार्थ की खोज करके पुण्य प्राप्त करना असंभव है... बहुत सुन्दर और सटीक भाव . हर पकती गूढ़ अर्थ लिए हुए है....आपका बहुत-बहुत आभार इस सुन्दर रचना के लिए

Amrita Tanmay ने कहा…

सुन्दर कविता..