यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि हम यदि अपने परम विश्वसनीय मित्र से, उस व्यक्ति के बारे में जिसे हम जानते तो हैं पर वह हमारा घनिष्ठ नहीं है, कहीं उसकी बुराइयां या कहें निंदा सुन लें तो हम बिना किसी सबूत के, बिना परखे सहज ही उसे त्याज्य मान लेते हैं. उसे देखना भी पसंद नहीं करते. दूसरे शब्दों में कहें उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते हैं. यह तो मित्र की बात हुई. घर में भी हम किसी के प्रति उसके रहन सहन से, उसके व्यवहार से खिन्न हैं अथवा वह घर में बोझ लग रहा हो तो हम अपनी मित्र मंडली में उसके बारे में जितने भी नकारात्मक टिप्पणियां करनी होती है कर देते हैं. हमारी मित्र मंडली भी बिना उसके संग रहे उसके व्यवहार को परखे पूर्वाग्रह से ग्रसित हो उसे हेय दृष्टि से देख उससे दूर ही रहना चाहती है. किन्तु प्रभु की लीला भी कम नहीं, कभी कभी ऐसी परिस्थिति पैदा कर देता है कि आज जिस व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जा रहा था वही व्यक्ति हेय दृष्टि से देखने वाले के लिए भगवान् बन जाता है. बुरे समय से उबार लेता है और ऐसे ही समय में उसे लगता है कि उसके कान को कोई खीच रहा है और कह रहा है कि बेवजह उस व्यक्ति के प्रति गन्दी सोच क्यों रख रहा था, मात्र अपने घनिष्ठ मित्र से उसकी बुराई सुन. कभी कभी व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की बीमारी का शिकार स्वामी भक्ति अथवा कहें किसी से प्रगाढ़ प्रेम हो जाने के कारण हो जाता है. हम तो साधारण मनुष्य हैं. भगवान् भी इससे अछूते नहीं रहे. श्री राम चरित मानस का यह प्रसंग इस बात को साबित करता है --- भगवान श्री राम चन्द्र जी के वनगमन का समाचार सुन भैया भरत और शत्रुघ्न का रानियों सहित, भगवान् श्री राम चन्द्र जी को वापस अयोध्या ले जाने के लिए चित्रकूट जाना . श्रिंग्वेरपुर के समीप पहुंचना. निषादराज के मन में विचार उत्पन्न होना कि भरत जी सेना सहित इसलिए आये हैं कि श्री राम चन्द्र जी को मारकर निष्कंटक राज करना चाहते हैं. इतना ही नहीं निषाद राज के द्वारा अपनी जाती के लोगों से भरत जी से यद्ध के लिए तैयार हो जाने के लिए कहना. ढोल बजाकर केवल ललकारने की देरी थी तभी किसी का छींक देना और एक बूढ़े के द्वारा शकुन विचार कर भरत जी से मिलने की सलाह देना और यह विश्वास दिलाना कि भरत जी से लड़ाई नहीं होगी. इतना होते तक निषाद राज का जोश ठंडा पड़ना और यह सलाह देना कि "जल्दी में काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं" हमारी छत्तीसगढ़ी में भी कहावत है "जल्दी म लद्दी, धीर म खीर" . परिणाम भरत निषाद राज का मिलन और निषाद राज का पछतावा. (अयोध्या कांड दोहा क्रमांक १८६ से लेकर १९६ तक वैसे तो और आगे तक भी). बात यहीं समाप्त नहीं होती. लक्ष्मण जी भी इस विचार से अछूते नहीं रहते. उन्हें भी भाई भरत का इस प्रकार रथारूढ़ होकर सैन्य शक्ति के साथ आना नागवार गुजरता है. यही धारणा मन में बनती है कि भैया भरत के आने का कारण प्रभु श्रीरामचंद्र जी को मारकर निष्कंटक अयोध्या का राज करना है जैसा कि भरतजी ने प्रभु जी को असहाय समझ इसी अवसर को उपयुक्त चुना. कहने का तात्पर्य है कि इस तरह कि चीजें स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होती हैं. ऐसी अवस्था में हमे "जोश में होश" न त्याग कर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए. कौए कि ओर देखने के बजाय भैया अपने कान ही पकड़ कर देखें कि है कि नहीं.......... सियावर रामचंद्र की जय.. अरे हाँ एक चौपाई को उद्धृत करना चाहूँगा... "चले निषाद जोहारि जोहारी. सूर सकल रन रुचइ रारी.. सुमिरि राम पद पंकज पनही. भाथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं.. इस चौपाई में "जोहारि" और "पनही" का उल्लेख हुआ है. इन्हें हम अपनी छत्तीसगढ़ी बोली में भी प्रयोग क्रमशः अभिवादन(जोहारि) व जूते(पनही) के लिए करते हैं.
जय जोहार .......
जय जोहार .......
2 टिप्पणियां:
जय जोहार।
जय हो भैया तोहार
जय जोहार जय जोहार जय जोहार
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