इस दौड़ भाग की जिन्दगी में आदमी की मनः स्थिति भी शांत नही रहती। फुर्सत के क्षणों में भी। फिर भी यहाँ यह कहना अनुचित नही होगा की ऐसी अवस्था में यदि व्यक्ति अच्छी किताबों का सहारा लेले तो मन कितना भी व्याकुल क्यों न हो कुछ क्षण के लिए उस किताब में लिखी बातों के साथ हो लेता है और यदि कोई ऐसा प्रसंग पढने को मिल जाए जो उस पुस्तक को पढने से पहले मन में हो रहे उथल पुथल को दूर करने में सहायक हो तो बात ही क्या। कुछ ऐसा वाकया मेरे साथ भी हुआ। युग निर्माण योजना से प्रकाशित पुस्तक "सफल जीवन की दिशा धारा" पढ़ रहा था। इस किताब में अलग अलग अध्याय के अर्न्तगत जीवन को सफल बनाने के उपाय के बारे में लिखा गया है। शीर्षक "खर्च करने से पहले सोचिये" वाले अध्याय में लिखा गया वाक्य मेरे मन में घर कर गया। उसमे लिखा था
"दूध दही बहानेवाले, कुत्तों को मखमल पर सुलाने वाले यह भूल जाते हैं कि उनके देश के आधे से अधिक लोग आधा पेट भोजन कर चिथडों से अपने अंगों को ढककर अपना समय काट रहे हैं"।
उपरोक्त वाक्य पढ़ते ही मेरे मन में विचार कौंधा कि हमारे देश में ऐसी स्थिति क्यों है? मेरे अनुसार इसका जिम्मेदार देश का प्रत्येक व्यक्ति है। स्वतः मै भी। यद्यपि मै यह कहूँगा कि इसके लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी देश के रइस लोग हैं जो या तो उद्योग कारखानों से जुड़े है अथवा व्यवसायी हैं जो इस बात का दंभ भरते हैं कि वे लोगों को रोजगार उपलब्ध करातेहैं। सही मायने में देखा जाय तो क्या वे अपने मजदूरों को उनकी मेहनत का सही पारिश्रमिक दे पाते हैं ? नही। उनका पहला उद्द्येश्य है स्वार्थ पूर्ति। ऐसे लोग श्रम का शोषण करते हैं। आज हम घरों में घुसकर चोरी करने वालों डाका डालने वाले को ही चोर व डाकू कहते हैं। पर आज के परिदृश्य में इन पूंजीपतियों को क्या कहेंगे जो देश में डाका डालते हैं। मसलन करों की चोरी बिजली चोरी आदि आदि। केवल चोरी तक नही "चोरी और सीना जोरी"। देश के सबसे बड़े गद्दार होते हुए भी सभ्य समाज के सम्मानीय व्यक्तियों में गिने जाते हैं। इनके कृत्यों को बढ़ावा देने शासन द्वारा नियुक्त देशभक्त सेवकों का भी महात्वपूर्ण योगदान रहता है। वजह साफ़ है ऐयाशी की जिन्दगी जीने की प्रबल इच्छा । इसी को जीवन का उद्देश्य मान लेना। विलास प्रिय लोग।
भावना में बहकर लेखनी उक्त बातें लिखने को उद्यत हो गई। बाद में फिर वही ढाक के तीन पात।
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