घाटे की अर्थ व्यवस्था
जहां देखिये घाटे की अर्थ-व्यवस्था। प्रत्येक समाज की अपनी सामाजिक पत्रिका छपती होगी। हमारे समाज में इसका बीड़ा एक ही व्यक्ति द्वारा मुख्य संपादक/प्रकाशक/मुद्रक सभी की भूमिका निभाते हुए उठाया गया है जैसा कि "केसर ज्योति" नाम की त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन नियमित रूप से 11 वर्षों से किया जा रहा है। पत्रिका किसी प्रांत तक सीमित नहीं है। हर प्रांत में बसे स्वजातीय बंधुओं के पास पत्रिका पहुंचाने का प्रयास किया जाता रहा है। वैसे पत्रिका को छत्तीसगढ़ प्रांत से अच्छा प्रतिसाद मिला है। मगर बड़े दुःख की बात है कि प्रधान सम्पादक महोदय सदैव यही रोना रोते रहते हैं कि कभी 4.5 लाख रुपये के घाटे पर चल रहा है पत्रिका के सम्पादन का कार्य तो कभी 6.5 लाख रूपये के घाटे पर। यह बात समझ में नहीं आई कि वास्तव में यदि इतना घाटा हुआ है तो 11 वें वर्ष का सफ़र कैसे जारी रख पाई है यह पत्रिका। इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी कार्य को अकेले सम्पादित करने पर कठिनाई तो आएगी ही। अब समाज में हर कोई चाहता है कि पत्रिका में उसका नाम अवश्य दिखे। केवल उसका ही नहीं पूरे परिवार का नाम दिखे। उसकी रचनाओं को प्रकाशित किया जाय। जब सहयोग के लिए निवेदन किया जाता है तब आना कानी। सदस्यता शुल्क दे देने मात्र से यह समझा जाता है कि सम्पादक उसकी हर बात माने।
अभी अभी प्रधान सम्पादक महोदय से हुई मुलाक़ात ने मुझे कुछ बातें लिखने पर मजबूर कर दिया है। कोई व्यक्ति क्या सचमुच इतना घाटा सहकर अपना कारोबार जारी रख सकता है विशेष रूप से आय का और कोई जरिया न हो तब। दूसरी बात पिछले साल तक इस क्षेत्र की जनता भरपूर सहयोग करती थी वह इस समय प्रधान सम्पादक महोदय से कटी कटी सी क्यों है? क्या उनके दवारा अपनाया गया सिद्धांत "घाटे की अर्थ-व्यवस्था" इसका कारण है या और कुछ। संपादक महोदय से पूछने पर कहा जाता है कि वे स्वतः हत्प्रभ हैं। "दीपावली विशेषांक" के नाम पर विज्ञापन संकलन (याने विज्ञापन के लिए राशि संकलन) हेतु सम्पादक महोदय जी विगत डेढ़ महीनों से यात्रा पर हैं। दुर्ग उनका आखरी पड़ाव था। आज ही अपनी इंदौर नगरी के लिए रवाना हुए हैं। हमने भी उनसे कह दिया कि जब पूरा देश "घाटे की अर्थ-व्यवस्था" पर चलाया जा सकता है तो आपकी पत्रिका क्यों नहीं चल सकती।
जय जोहार .......
3 टिप्पणियां:
आपकी बात बिलकुल सही है जब पूरा देश "घाटे की अर्थ-व्यवस्था" पर चलाया जा सकता है तो आपकी पत्रिका क्यों नहीं चल सकती...
छत्तीसगढ़ राज स्थापना दिवस की बधाई...
पहले 'कट योर कोट अकोर्डिंग टू योर क्लोथ' का सिद्धांत था .. अब अरेंज फोर द क्लोथ अकोर्डिंग टू द साइज आफ कोट चता है.
समाजिक पत्रिका मन अइसनहे चलथे।
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