वैसे तो दिन भर आदमी हा सोचते रहिथे। तभे यक्ष हा युधिष्ठिर ले प्रश्न करे रहिसे के हवा ले भी तेज काखर गति हवे। ओला जवाब मिले रहिसे "मन"। तौ भाई मन ताय दिन भर सोझ बाय नई रहे। फेर मैं समझथौं आनी बानी के सोच हा सुभीता ले एकेच ठउर माँ दिमाग ला कुरेदत रथे। वो ठउर आय रे भाई हो लोटा परेड करेके स्थान। अब जादा विस्तार ले समझाए के जरूरत नई ये मैं समझ थौं। बस एके बात के चिंता रथे के जैसे कचरा हा उपयोगी नई रहे तिसने दिमाग ले मन ले उपजे बने विचार ला कचरा मत बनाए जाय अउ वो सुभीता खोली से गुनत गुनत निकले के बाद तुरते अपन डायरी माँ लिख डारे जाय। अउ फेर ए मेरन लिख मारे जाय।
4 टिप्पणियां:
धन्य हो भैया आप मन मे बड़का साहितकार बने के गुन हा भरे हे, उमड़त-घुमड़त विचार अईसने आथे।-जय होय
बड़े बड़े मन के आदत रहीसे सुभीता खोली मे कागज औ पेंसिल धरेके \ \मै ऐसा सुने हौं भाई । कोसिस करके देखे हौं पर वो कागज गिल्ला हो जाथे औ सब्बो विचार.. अब का कहिबे तब से मै ये काम नही करए हौ पर एक नुकसान होगे मोर के मै बड़ा आदमी बने से बाच गे हौं
बहुत बढिया भैया, हम सोचे के या ब्लोग पे तुम जैसे लिखन बारे भौत कम है
लिखे को बडो महत्व है
मैं अपने सभी टिपण्णी प्रेषित करने वाले बंधुओं का आभारी हूँ. मेरे द्वारा लिखे गए तुच्छ विचार को भी सराहा. तुच्छ विचार से मेरा तात्पर्य एक विनोदी स्वभाव का होने के नाते यूँ ही लिख देने से है, ख़ासकर अपनी बोली में. शरद भाई साहब द्वारा आदरणीय ललित जी द्वारा एक संकेत देने के ऊपर बढ़िया व्यंग्य किया गया है पसंद आया. और उनका बड़प्पन है कि वो अभी इस मुकाम पर पहुचने के बाद भी कह रहे हैं बड़ा आदमी नहीं बन पाया. या यूँ कह रहे हों कि अच्छा हुआ उस स्थान पर बैठ कर विचार नहीं लाये गए आये नहीं तो ................... वैसे ही विचार बनते खैर!
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