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रविवार, 15 नवंबर 2009

मृत्यु-भोज व दहेज़ प्रथा

बहुत हो गया अब। एक ही ढर्रे में चलते हुए। याने हँसी मजाक में कुछ कुछ पुडिया छोड़ते हुए. कुछ अन्य विषय पर भी चर्चा हो जाय। हम सब देख रहे हैं की आज समाज में मृत्यु भोज व दहेज़ प्रथा अभी भी कायम है। कायम ही नही मैं समझता हूँ ये दोनों कुरीतियाँ प्रतिष्ठा का विषय बन गयी हैं। बहुत लिखे जाते हैं इस पर। पर आप सभी से इस सम्बन्ध में राय जानने की अपेक्षा है। मैंने लोगों के बीच चर्चा करने पर पाया कि घर में किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने के  दस दिन  बाद की शुद्धि के पश्चात् तेरहवें दिन समाज के लोगों को, मित्रों को अपने घर बुलवाकर भोजन करा घर में शोक संतप्त वातावरण से उबरने के लिए तेरहवीं के रूप में संपन्न कराया जाता है। पर जैसा कि आज देखा गया है कि इस अवसर पर भी एक विवाह समारोह के समकक्ष भोज का आयोजन किया जाता है क्या  यह उचित है? अब दहेज़ प्रथा के बारे में तो पूछिए मतलड़कों की पढ़ाई और जॉब के आधार पर दहेज़ तौला जाता है . ये सब बातें धनाढ्य वर्ग के लिए सहज है किंतु क्या समाज के गरीब तबकों के लिए इन चीजों का थोपा जाना वाजिब है? पत्रिका केसर ज्योति के संपादक के सम्मान में एक कविता तैयार कर  दहेज़ मृत्युभोज  दोनों को इसमे शामिल करते हुए (भाषा को सुसज्जित कर पंक्तिबद्ध करने में तो अभी समय लगेगा) अपनी भावना को कुछ इस तरह प्रकाशित करवाया था:


केसरवानी समाज कि ये बगिया सुरभित हो केसर से सदा
जलती रहे प्रेम कि ज्योति दिलों में सभी के
हम हों कभी किसी से जुदा
कर रहा राज हम सब के दिलों में
वह केसरवानी राज है
केसर ज्योति कि रश्मि प्रभा से
दीखता संगठित सुगठित
केसरवानी समाज है

अतएव है निवेदन भी करूँ ताकीद सभी को
होने देंगे समाज का विघटन
ठान लें मन में अभी से
पूरा हो थोड़ा ही सही
कर अर्पण अपना तन मन धन
खा लें कसम रुकें पल भर
पियेंगे पिलायेंगे
फ़ेंक देंगे उन शीशियों को
भरा हो जिनमे ईर्ष्या द्वेष भाव का जहर
ढाने देंगे कभी
पुत्र वधू वधू के पिता पर
उस गरीब के घर, जहाँ से
निकली है अर्थी लेटा है चिता पर
दहेज़ व् मृतभोज रूपी कुरीतियों का कहर
महका दें सदाचार व् सद्भाव की सुरभि से
इस समाज को अपने वतन की इस सरजमी को











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