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शनिवार, 3 अप्रैल 2010

लोगों का ईगो क्यों टकराता है

आन बान और शान
बस रखते  इसका  ध्यान
बघारते हैं हम सभी  अपना अपना ज्ञान
(मैं भी वही कर रहा हूँ)
पर एक बात खलती है हमें
लोगों का ईगो क्यों टकराता है
ब्लॉग जगत में देखा हमने
किसी की भी पोस्ट हो,
(भले ही वह आपको निम्न स्तर का लगे)
प्रतिक्रिया देने से क्यों  कतराता है
यह केवल ब्लॉग लेखन के लिए लागू नहीं है.  हमने अनुभव किया है घर-परिवार में, कार्यालय में, खासकर कुछ  बड़े अफसरों की ओर से. यदि हम किसीके अनुयायी बन गए या यूँ कहें कि उनके शरणागत हो गए, उनकी कृपा से लाभान्वित हो गए तो यह स्वाभाविक है कि उनके प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ हो जाती है. हम कृतज्ञ हो जाते हैं. पर इसका  आशय यह भी नहीं होना चाहिए कि हमने जिसकी मदद की हैं उससे दूरी बनाए रखें.  जरूरत होगी तो जो कृतज्ञ है वही संपर्क साध लेगा. हम इस मामले में बता दें कि हम तो किसी की मदद कर सकते नहीं. पर हमारी जो मदद किये होते हैं, उनके सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं. लगता है इन लोगों का सानिध्य न छूटे. सतत संपर्क में बने रहना चाहते हैं. पर  हम जिसके प्रति कृतज्ञ हैं वहां से प्रतिक्रिया न मिले तो लगता है कि यह एकतरफा है.
          इस मामले में कृतज्ञ व्यक्ति के मुख से कुछ निकल पड़ा तो प्रतिक्रिया क्या मिलती है, प्रायः किन मुहावरों का प्रयोग होता है यहाँ प्रस्तुत है:  "वाह अब चींटी के भी पर निकल आये हैं"  "मेरी बिल्ली मुझे म्याऊं" यदि किसी के सर से माँ बाप का साया उसके बचपन से ही उठ गया हो और जहाँ उसका लालन पालन हुआ हो उनके तरफ से एक टिपण्णी यह रहती है (यदि जाने/अनजाने में कुछ शख्स से कुछ ऐसी गलती हो जाती है कि अभिभावक का बड़ा नुकसान हो जाता है या यह कहें अभिभावक की बात नहीं मानी जा रही हो, सचमुच वह शख्स बड़ा स्वार्थी हो गया हो तब):- "पोंसे डिंगरा खरही माँ आगी लगावत हे (यह क्षेत्रीय बोली छत्तीसगढ़ी में कहावत है) वैसे हिंदी में इसके लिए है "जिस थाली में खाए उसी में छेद कर रहे हैं" आदि......... दरअसल हम जरा ज्यादा भावना में भी बह जाते हैं. यदि कहीं से भी थोड़ा रिस्पोंस मिलता दिखाई नहीं पड़ता तो तड़प उठते हैं. छत्तीसगढ़ी मा जेला हदरहा कथें. 
                     घर में बातें होती हैं अर्धांगिनी कभी कभी कहने लगती है क्यों किसी के पीछे लगे रहते हो.  कोई कुछ भी कह दिया वह जल्दी मान जाते हो, यदि किसी से ज्यादा पटने लगी तो बस दिन रात वहीँ के हो जाते हो.  सामने वाले से कुछ रिस्पोंस नहीं मिल रहा होता है फिर भी आप लगे रहते हो.  दरअसल हम पहले सभी से बराबर संपर्क बना रहे करके जब देखो तब फोनियाते रहते थे. अब इसके लिए भी कहावत का प्रयोग "जादा मिठ माँ जल्दी किरवा लग जाथे"  याने ज्यादा मीठे में कीड़े जल्दी लग जाते हैं. यह ज्यादा पके फल के लिए लागू  होता है. इन सब बातों को सोचकर किंचित मन खिन्न हो जाता है. और लगता है छोडो दुनियादारी. पर क्या दुनियादारी छोड़ देने से जिन्दगी का मजा ले पायेंगे. यही तो एक प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ अपने मन की भड़ास निकाल लो.  सो निकाल लिया मन की भड़ास.
जय जोहार................ 
    


4 टिप्‍पणियां:

वीनस केसरी ने कहा…

यही तो एक प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ अपने मन की भड़ास निकाल लो. सो निकाल लिया मन की भड़ास.

बढ़िया किया जी :):):)

Anil Pusadkar ने कहा…

अच्छा किया।

जय छत्तीसगढ्।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

शास्त्रों मे कहा गया है कि
कृतघ्नता से बढ़ कर पाप कोई नही है।

लेकिन इतने भी कृतज्ञ ना हों कि
कमर ही झुक जाए, फ़िर सीधी ना हो

यह प्लेट फ़ार्म अच्छा है अपनी बात कहने के लिए।

मनोज कुमार ने कहा…

आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।