याद आता है बचपन. जाते थे हम अपने नानाजी के साथ वह पवित्र स्थान जहां प्रतीकात्मक होलिका दहन होता था. मिलता था वहां उपस्थित सीनियरों और जूनियरों से बड़ा सौहाद्र और अपनापन. पर्व का प्रथम प्रहर रंग गुलाल से सरोबार रहने में बीतता था. मध्यान्ह स्नान के बाद बजरंगबली की पूजा प्रसाद स्वरुप रोंठ (एक पकवान का नाम) चढ़ाया जाता था. शाम का समय साफ़ सुथरे, वैसे नए कपडे पहनकर जाते थे उस जगह पर जहां फाग गाया जाता था.इससे पहले नानी जी और दादीजी शक्कर की माला पहनाती थीं और उनसे कुछ मुद्रा भी मिल जाती थी. और मुद्रा का उपयोग हम सनीमा देखने में किया करते थे. और तो और हम पारंपरिक पकवान इस क्षेत्र का, जिसे क्षेत्रीय बोली में "अनरसा" और "देहरौरी" कहते हैं, मजा लेने से नहीं चूकते थे. आज हो सकता है हम ही "रिजर्व" नेचर के हो गए हों इस वजह से इन सब चीजों का लाभ न ले पा रहे हों. इन सब बातों की याद हमारे मित्र "शिल्पकार" उर्फ़ ललित शर्मा जी द्वारा पोस्टियाई गई रचना "लाल गुलाल अबीर के छाये हुए हैं रंग पढ़कर आ गई. लोगों को कड़े परिश्रम करने में, किसी समस्या से निजात पाने में नानी याद आती है. मुझे मेरी माता स्वरूपा नानी यूँ ही याद आ गई. उनको मेरा कोटि कोटि प्रणाम.
3 टिप्पणियां:
पोस्ट पढ कर हमे भी नानी याद आ गई।
बढिया पोस्ट
हमने अपनी नानी देखी ही नही
पर हा नानी प्यार बहुत करती है अभी को
वाह भाई वाह
आपने दिया कान पर ध्यान
हम सबका बढ़ाया ज्ञान
यह लेख वाकई कितना अच्छा है
बिन परखे किसी की बात, न करेंगे
व्यक्त अपने विचार, नहीं तो कहेंगे
आप सभी की कान का कितना कच्चा है.
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