आयातित वस्तु बड़ी प्यारी लगती है. इम्पोर्टेड आईटम. हमारे विभाग के लोगों को आम जन मानस(मित्र गण) पहले कहा करते थे; कस्टम का माल नहीं पकडाया क्या? उसकी नीलामी नहीं हो रही है क्या? क्यों? इसलिए कि (विदेशी कहना ठीक नहीं लगेगा) फ़ोरेन का आइटम का अलग क्रेज है सोचते थे. आज प्रातः ब्लॉग में लिखी बातें भी आयातित ही है. हाँ! ईर्ष्या से विकास अवश्य संभव है जब हम ईर्ष्या वश दूसरों का विनाश न सोचकर अपनी सोच, अपनी बुद्धि का विकास करें. मसलन यदि ईर्ष्या नहीं होगी तो हम तटस्थ बैठे रहेंगे आगे बढ़ने की सोच उपज ही नहीं सकती. प्रतिस्पर्धा की भावना न हो तो मन में शिथिलता, नकारात्मक सोच, घर कर लेती है. ईर्ष्या को प्रतिस्पर्धा के दृष्टिकोण से लेना होगा. दूसरों की "रेखा" छोटी करने वाली बात नहीं होनी चाहिए. ईर्ष्या से जलन और जलन से क्रोध रूपी ज्वाला की "धधक"! और यही "धधक" एक ओर विनाश का कारण. यह ईर्ष्या की ज्वाला तभी शांत हो सकती है जब हम सर्वांगीण विकास की बात सोंचें. अतएव ईर्ष्या से विकास का रहस्य गूढ़ नहीं है. चलिए हमारे मन में भी गुन्गुवाहट हो रही थी. धुन्गिया उडाए लगे रहिसे. तव येदे ओला बुताये के उदिम करे हौं.
जय जोहार...........
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