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शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

सावन के झड़ी

सूर सूर तुलसी शशि, उरगन केशवदास।                                                                                                               अब के कवि खद्योत सम जंह तंह करत प्रकास॥                                                                                           ये  दोहा हमर जैसे अड़हा बर लिखे हे। कभू किताब कापी ल पढ़ेन नही। तोपचंद  बने के कोशिश करे लगेन । जब बने बने सुग्घर साहित्य ल देखे नई रहिबे पढ़े नई रहिबे त कायच कर लेबे। बने हे बुलाग जगत एमा थोर बहुत देखा सीखी लिखा जाथे, ओहू टेम मिलथे तब . ए दारी सावन मा बने झड़ी लगे हे। सावन के झड़ी का लगे हे एती पेट गड़बड़ा गे, उहां झड़ी लग गे। घेरी बेरी सुभीता खोली के जवई। ले दे के माड़े हे अभी। लईका ल ले के आई आई टी मा सलेक्शन होगे हे उंहा  भरती करवाये बर जाना हे।              ए मौसम हा डाक्टर मन बर तिहार बरोबर रथे। जहां देख उंहा लाईन लगे हे । कोनो ल सर्दी खांसी कोनो के पेट खराब। इही खातिर कथें खाये पिये बर सावधानी रखो ए सीजन मा। मन मा आईस ये बिचार हा त लिख पारेंव। अब सोचत हौं एखर हेडिंग का दंव। भले मिक्चर बन गे हे लिखई हा, तभो ले हेडिंग जम जहि तईसे लगथे………                                                                                                                                 जय जोहार्………………

सोमवार, 18 जुलाई 2011

क्या जाता हमारे बाप का

लौह पथ गामिनी कहलाती रेल 
जन "काल का" ग्रास बना ले गई 
हावड़ा दिल्ली "कालका" मेल 
हे ईश्वर ! है तेरा यह कैसा खेल ?
कुसूर मुसाफिर का क्या था 
भोंक दिया इन पर खंजर 
खड़े हो गए रोंगटे सबके 
देख भयावह यह मंजर 
(२)
दफ़न ना हो पायी थी लाशें,  हुए मुंबई में बम के धमाके 
कहीं खेद प्रकट, कोई आरोप जड़त,  सब अपनी अपनी हांके 
छीना सुहाग, बुझ गया चिराग, हट गया साया माँ बाप का 
मकसद हमारा "आतंक" है; मरे कोई जिए कोई 
क्या जाता हमारे बाप का 
(आतंकवादियों को जरा भी अफ़सोस नहीं होता कि मारे जाने वाले उन्ही के सगे सम्बन्धियों में से हो सकते हैं. उन्हें तो केवल पैदा करनी होती है  सबके  के दिलों में दहशत .....शायद यह "शंकर" का संहारक रूप हो ......आयें करें विनती उनसे:-  प्रभु ! "संहारक" रूप त्यागें, जगत का कल्याण करें . 
"हर हर महादेव" "बोल बम" "ॐ नमः शिवाय" 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्  
जय जोहार ......... 

"ॐ नम: शिवाय"

"ॐ नम: शिवाय"                                                                                                                                                               श्रावण मास के प्रथम सोमवार की आप सभी को बहुत बहुत हार्दिक शुभ कामनायें। प्रभू से विनती है समस्त जगत का कल्याण करें। हममे चेतना जागृत हो सत्कर्म के साथ जीवन यापन की सुख दुख मे प्रत्येक का साथ देने की।                                                                                                                                   "मृत्युंजय महादेव त्राहिमाम शरणागतम"                                                                                        जन्म मृत्यु जरा व्याधि: पीड़ितमकर्मबंधनै:"                                                                                      पुन: आप सभी को श्रावण मास के प्रथम सोमवार की बहुत बहुत शुभकामनायें                                 जय जोहार ………                                                                                                                                                                                                                                                                

रविवार, 3 जुलाई 2011

दुम में कितना है दम

दुम में कितना है दम  
डार्विन ने मानव विकास के बारे में कहा था कि पहले मानव की भी पूँछ होती थी लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल न होने की वजह से वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई. वैज्ञानिक मानते हैं कि रीढ़ के आख़िर में पूँछ का अस्तित्व अब भी बचा हुआ है. वे ऐसा कहते हैं तो प्रमाण के साथ ही कहते होंगे क्योंकि विज्ञान बिना प्रमाण के कुछ नहीं मानता. बात जब रीढ़ की हड्डी की हो तो यह सभी जानते हैं कि रीढ़ की हड्डी की मजबूती  हमारे शरीर के लिए कितना महत्वपूर्ण है. और जब रीढ़ की हड्डी मजबूत हो तो 'दुम' जिसका अस्तित्व रीढ़ की आखिर में होना माना जा रहा है, में  दम तो रहेगा भाई. विवेकशील मानव में दुम का भौतिक रूप में दृश्य अस्तित्व भले न हो चारित्रिक अस्तित्व तो अवश्य है.  मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों की श्रृंखला की एक कड़ी आपके समक्ष प्रस्तुत है कुछ इस तरह; 
 (१)
माता सीता की खोज में 
रामदूत हनुमान का हुआ आगमन लंका 
दुम हिलाया नहीं, दुम दबाया नहीं, 
वह दुम ही तो है,  
राख कर दी थी सोने की नगरी 
दुराचार पर सदाचार की 
जीत का बज गया था डंका 
(२)  
कुत्ता 
जानवरों में वफादार
दुम हिलाता मालिक सम्मुख 
पाता है  मालिक का प्यार
भार है घर की रखवाली का 
होवे दुलारा घरवाली का 
सुनके आहट अजनबी की 
कहता है,  हो जा प्यारे  खबरदार!
  करना नही  देहरी  पार
वरना 
दुम   की तरह,  इरादे हैं पक्के   
रह न पाओगे मानव तुम 
कर दूंगा तुम पे  दन्त, नख वार 
(३)
इंसान की दुम हो गयी है गायब 
फिर भी दुम हिलाता फिरता है 
दुम की दम पे टिकता है,
रख ताक इज्जत बिकता है 
हो चुकी होती है देर सम्हलने को 
जब दुनिया की नजरों से गिरता है 
                                 जय जोहार............