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बुधवार, 28 जुलाई 2010

तीन दिनों की बारिश

तीन  दिनों की बारिश

प्रांत को जलमग्न किया 
किसान हुए कहीं खुश
झुग्गी  झोपडी के वासिंदों को  
क्यों तुने अर्धनग्न किया
(२) 
मांग बहुत है पानी की 
है यह किसी से छुपा नही
पर यह क्या!  तीन दिनों से 
हो रही बारिश 
जन जीवन हुआ अस्त व्यस्त
बीच बीच में क्यों रुका नहीं
(३)
आया सावन झूम के 
बिदा हुआ आषाढ़ 
जल स्तर थोड़ा बढ़ो गयो
नदी नालों में आयो बाढ़ 
नदी में आयो बाढ़,  उतर जइयो---
प्राकृतिक आपदाओं, भूखमरी,
बेरोजगारी, घोटालों,  भ्रष्टाचारों
इनकी बनी रहे जो बाढ़,
क्या करियो भइयो?????
जय जोहार .......

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागू पाय। बलिहारी आपनी गोबिन्द दियो बताय॥

                              हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा का दिन गुरु की आराधना का है। यह अवसर गुरु-शिष्य परंपरा की महत्व को बताता है। इस वर्ष यह पुण्य अवसर २५ जुलाई को आया । शास्त्र कहते हैं गुरु से मंत्र लेकर वेदाध्ययन करने वाला शिष्य ही साधना की योग्यता पाता है। गुरु हमेशा वंदनीय और पूजनीय होते हैं।  व्यावहारिक जीवन में भी पाते हैं कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या सहायता के किसी कार्य या परीक्षा में सफलता कठिन हो जाती है। किंतु गुरु मिलते ही लक्ष्य आसान हो जाता है। सफलता कदम चूमती है। इस प्रकार गुरु शक्ति का ही रुप है। वह किसी भी व्यक्ति के लिए एक अवधारणा और राह बन जाते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति मनोवांछित परिणाम पा लेता है। इस प्रकार बगैर गुरु बनाए कोई साधना सफल नहीं होती। कहते हैं ईश्वर के कोप से गुरु रक्षा कर सकते हैं। पर जब गुरु रुष्ट हो जाए तो असफलता और कष्टों से ईश्वर भी रक्षा नहीं कर पाता। यही कारण है कि गुरु का महत्व भगवान से ऊपर बताया गया है। गुरु ही हमें जीवन में अच्छे-बुरे, सही-गलत, उचित-अनुचित का फर्क बताता है। जो सफल जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। गुरु ही हमें गोविन्द यानि भगवान से मिला सकता है। सद्गुरु कबीरदासजी ने इसीलिए कहा है-
गुरु गोबिन्द दोउ खड़े काके लागू पाय।  बलिहारी आपनी गोबिन्द दियो बताय 
                          यह पवित्र तिथि व्यास पूर्णिमा के नाम से भी प्रसिद्ध है। अनेक धर्मावलंबियों की यह जिज्ञासा होती है कि क्यों गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसका जवाब भी पौराणिक मान्यताओं में मिलता है।
                               पहला कारण इस दिन हिंदू धर्म के प्रमुख ऋषि वेद व्यास का जन्मोत्सव मनाया जाता है। साधारणत: धर्म से जुड़े लोग ऋषि वेद व्यास को मात्र महाभारत का रचनाकार मानते हैं। किंतु यह अनेक लोग नहीं जानते कि हिन्दू धर्म के पवित्र धर्म ग्रंथ, जिनमें सभी वेद, पुराण शामिल है, का संकलन और संपादन ऋषि वेद व्यास ने ही किया। इनमें प्रमुख रुप से चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के साथ, १८ पुराण, महाभारत और उसका एक भाग भगवद्गीता शामिल है। उन्होंने पुराण कथाओं के द्वारा वेद सार और धर्म उपदेशों को आम जन तक पहुंचाया।
                          व्यास पूर्णिमा का यह शुभ दिन मात्र वेदव्यास के जन्मोत्सव दिवस ही नहीं है, बल्कि मान्यता है कि इसी पावन दिन वेद व्यास ने चारों वेदों का लेखन और संपादन पूरा किया। इस कारण भी यह व्यास पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है।
                          ऋषि वेद व्यास ने श्रीगणेश की सहायता से धर्मग्रंथों को पहली बार भोजपत्र पर लिखा। इसके लिए उन्होंने एकांत स्थान चुना। इस दौरान उन्होंने अपने शिष्यों को भी मिलने और किसी भी तरह से बाधा डालने से मना किया। इसके बाद उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान और ध्यान से भगवान श्री गणेश के साथ धर्म और जीवन से जुड़ी महान शिक्षाओं और उपदेशों को धर्मग्रंथों में लिखित रुप में उतार दिया। जो पूर्व में मात्र सुने जाते थे। ऋषि वेद व्यास, वेद और धर्म के रहस्यों को पहली बार लिखित रुप में जगत के सामने लाए। जिससे जगत ने धर्म और ब्रह्म दर्शन को गहराई से समझा। उनके द्वारा बताया गया धर्म दर्शन अमर और अनन्त है। जो पुरातन काल से ही जगत को जीवन में धर्म का महत्व बता रहा है।

                              उपरोक्त दो कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के मनाने के बारे में बताया गया है. पुराणों में विद्योपार्जन के लिए सही स्थान गुरुकुल को माना गया है जहाँ गुरु और शिष्य की क्या भूमिका होती थी सर्व विदित है. पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करना. गुरु की सेवा और सबसे बड़ी बात माँ बाप से कोई सहायता भी प्राप्त न करना यहाँ तक कि भोजन भी भिक्षा के द्वारा प्राप्त किये अन्न से स्वतः पकाकर ईश्वर और गुरु को भोग लगा ग्रहण करना. पुराणों मे  उल्लेख है कि यह शिक्षा अथवा कहें विद्या ग्रहण करने का समय अत्यंत कठिन होता था. 
                               गुरु शिष्य का वर्तमान स्वरूप क्या है? लाखों रुपये शायद करोड़ों कहें तो ज्यादा अच्छा होगा भव्य पंडाल सज्जा, गीत संगीत के साथ बड़े बड़े संतों का प्रवचन. कोई संदेह नहीं अध्यात्म का वृहत अध्ययन किये होते हैं. जिव्हा  पर  माँ सरस्वती बैठी होती हैं. लाखों की संख्या में भक्त गण कहें या श्रोता, भेद नही किया जा सकता,  बैठकर प्रवचन का आनंद ले रहे हैं. माँ लक्ष्मी कृपा पात्र सहज में, माध्यम वर्गीय कुछ और परिश्रम कर दीक्षा प्राप्त करते हैं, मिल जाते हैं उन्हें गुरु और गुरु को मिल जाता है शिष्य.  गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक "क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं"? (स्वामी रामसुखदास जी द्वारा लिखित) मैंने पढ़ी. बहुत ही सुन्दर ढंग से 'गुरु'' की व्याख्या की गई है. उनमे से कुछ अंश यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा.  
भगवत्प्राप्ति गुरु के अधीन नही
                                जिसको हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह परमात्मतत्व एक जगह सीमित नहीं है, किसी के कब्जे में नहीं है, अगर है तो वह हमें क्या निहाल करेगा? परमात्मतत्व तो प्राणिमात्र को नित्य प्राप्त है. जो उस परमात्मतत्व को जाननेवाले महात्मा हैं, वे न गुरु बनते हैं, न कोई फीस (भेंट) लेते हैं, प्रत्युत सबको चौड़े बताते हैं.  जो गुरु नही बनते, वे जैसी तत्व की बात बता सकते हैं, वैसी तत्व की बात गुरु बनने वाले नहीं बता सकते. 
                                 सौदा करने वाले व्यक्ति गुरु नहीं होते. जो कहते हैं कि पहले हमारा शिष्य बनो, फिर हम भगवत्प्राप्ति का रास्ता बताएँगे, वे मानो भगवान् की बिक्री करते हैं. यह सिद्धांत है कि कोई वस्तु जितने मूल्य में मिलती है, वह वास्तव में उससे कम मूल्य की होती है.  जैसे कोई घड़ी सौ रुपयों में मिलती है तो उसको लेने में दूकानदार के सौ रूपये नहीं लगे हैं. अगर गुरु बनाने से ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरु से कम दामवाली अर्थात गुरु से कमजोर ही होगी. फिर उसमे हमें भगवान् कैसे मिल जायेंगे? भगवान् अमूल्य हैं. अमूल्य वस्तु बिना मूल्य के मिलती है और जो वस्तु मूल्य से मिलती है, वह मूल्य से कमजोर होती है. इसलिए कोई कहे कि मेरा चेला बनो तो मैं  बात बताउँगा, वहां हाथ जोड़ देना चाहिए. समझ लेना चाहिए कि कोई कालनेमि है.! नकली गुरु बने हुए कालनेमि राक्षस ने हनुमान जी से कहा था----
   सर मज्जन करि आतुर आवहु!दिच्छा देऊँ ज्ञान जेहिं पावहु !!
यह प्रसंग है राक्षस कालनेमि द्वारा हनुमान जी को मोहित करने के इरादे से कपट रूप से मुनि का वेश धारण करना (लंका काण्ड दोहा क्रमांक ५७ चौपाई ४ जिसमे हनुमान जी उस मुनि से जल मांगते हैं तो अपना कमंडल देता है और तब हनुमान जी कहते हैं इतने क्या उनकी प्यास बुझेगी तब वह बड़ी ही कुटिलता से हनुमान जी से कहता है "तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूं., जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो!! 
                                 उसकी पोल खुलने पर हनुमान जी ने कहा कि पहले गुरु दक्षिणा ले लो, पीछे मन्त्र देना और पूंछ में सिर लपेटकर उसको पछाड़ दिया. 
                                   कहने का अभिप्राय गुरु के बिना मुक्ति नही है यह गलत है. 
जय जोहार........

रविवार, 25 जुलाई 2010

                         जय गुरुदेव 
आज गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर मेरे  ब्लॉग - गुरुवों को हार्दिक नमन वंदन. 
  जय जोहार    

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आंकड़ों का खेल

आंकड़ों का खेल 
यह पोस्ट केवल  आंकड़ों के एक  संयोग के लिए लिखी जा रही है. दरअसल आज दो संयोग एक साथ बना. एक तो लगातार तीन पोस्ट पर अजीज मित्रों के १३-१३ आशीर्वचन प्राप्त हुए. भाई न मेरे पास पुस्तकों का संग्रह है न ही ज्यादा वक्त दे पाता हूँ लेखन आदि में. जो कुछ लिखता हूँ आप लोगों से ही सीख कर. अतः ये आंकड़ों के संयोग पर ये जुमला याद आ गया:- 
तीन तेरा नौ अट्ठारा। अटकर पंचे साढ़े बारा॥   जो मेरे ऊपर अक्षरस: लागू होता है। 
(२)
आज अनुसरणकर्ताओं की संख्या 36 हो गई है। भगवान से प्रार्थना है हमारा किसी से छत्तीस का आंकड़ा न रहे।              
आज मूड मे यह सब लिख बैठे। कृपया सीरियसली न लेवें। 
जय जोहार ............

आ गया है क्या जमाना.

विकासशील(विनाशशील*) देश करने लगते हैं                        
नक़ल विकसित देशों की संस्कृति की
मसलन नाईट पार्टी, डेटिंग, जश्न का जोश
सुरा सुंदरी के संग
हर रोज होता है कुछ न कुछ 'डे'
मदर्स डे, फादर्स डे वैगरह वैगरह
कुछ इस तरह है इनके रहन सहन का ढंग.

वतन छोड़ जाते हैं
बस जाते हैं पाश्चात्य देशों में
अंग्रेजी का शब्द 'फॉरेन' बन गया है  पर्याय
अमेरिका, कनाडा, जर्मनी
ऑस्ट्रेलिया आदि देशों का
रहने लगे हैं जहाँ इस देश के
हर कोने के बासिन्दे

लौटते हैं ये अप्रवासी नागरिक
अपने वतन को, बजाते हैं डफली
'फॉरेन' की सड़कों का, यातायात
के नियमों के पालन में कड़ाई का

क्यों नहीं कर पाते
हम इन चीजों का अनुसरण
नियमों की लापरवाही
रेलम पेल आवाजाही
हर दिन दुर्घटना,
किसी न किसी का मरण

कोसते हैं सरकार को
फिफ्टी फिफ्टी.........
अरे अरे ज्यादा हो गया
चलो फोर्टी सिक्सटी  के
सौदे पर काम कर रहे ठेकेदार को
अभी अभी नयी सड़क बनाई गयी है
सड़क तो तब्दील हो गयी है
देहातों में चलने वाले बैलगाड़ी के "मार्ग" में
क्या करें फिर भी चलना पड़ता है
नही रहता मालूम कब किसकी शामत आ जाय

कुछ अपनी खामियों की ओर नजर डालें
यातायात के नियमों के मुताबिक
निर्धारित है अलग अलग माल वाहक गाड़ियों की
भार वहन करने की क्षमता
यात्री गाड़ी में यात्रियों की संख्या का  पैमाना
स्वतन्त्र हैं..... ना..ना ...... स्वछंद हैं
कितनो ने इसे अपनाया कितनो ने माना?
आ गया है क्या जमाना.

(इस देश को क्या कहेंगे? विनाशशील या बिनास शील ?  अभी तो रोज की घटनाओं दुर्घटनाओं को देखकर लगता है क्या ज़िन्दगी है. आतंकवाद. उग्रवाद नक्सलवाद आदि आदि से निपटते निपटते कई निपट गए. जहाँ देखो तबाही मंची हुई है
ऐसा कौन सा दिन है इन चीजों की खबरों से समाचार पत्र नहीं सना रहता. कह सकते हैं ना बिनासशील देश???
जय  जोहार .....

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कौन नहीं करेगा निछावर इस पर अपना प्यार

                 (१)                                                                         
निष्कपट निश्छल  चेहरा 
हिलते हैं, ओष्ठ अधर दोनों 
न बोल पाते हुए भी 
अपनी प्यारी सूरत औ आँखों के भावों से
कह जाता है सब कुछ
हंसता है हंसाता है, रोता है रुलाता है  
खींच लेता है सारी दुनिया अपनी ओर 



कौन नहीं करेगा 


निछावर
इस पर अपना प्यार 
नही रहता कोई  भेद भाव; 
उंच- नीच,  अमीर- गरीब का 
क्षण भर के लिए ही सही. 
(2)
गुजरता है पल पल परिवर्तन के दौर से 
करवटें बदलना, पेट के बल सोना (पलटी मारना} 
घुटने के बल चलना,  धीरे धीरे रेंगना 
बोलना भी सीख गया है, 
तोतली बोली हंसाती है सबको  
रट्टू तोता होता है   
समझ नहीं है कौन क्या बोल रहा है
दुहराता है सुने गए शब्द 
क्या मालूम उसे यह गन्दी  गाली है 
शुरू होती  है माँ- बाप  की परीक्षा
उसे अच्छे संस्कार देने की.
(3)
कदम रखता है स्कूल की दहलीज पर
छिन जाती है आजादी 
दिन भर घूम घूम कर 
खेलने की, धमाचौकड़ी मचाने  की.
लद जाता है बस्ते की बोझ से
(४)

शुरू हो जाती है प्रतिस्पर्धा की भावना
पांचो अंगुलियाँ एक समान नहीं होती
फिर भी बच्चों से ज्यादा रहते हैं 
पालक परेशान, डूबे रहते हैं इस सोच में 
कहीं क्लास में बच्चा पिछड़ तो नहीं रहा  
घट तो नहीं रही है  उनकी शान
बालक की क्षमता है तो कोई बात नहीं
वरना बच्चे के मन में  जड़ जमाता  अवसाद 
बना लेता है   अपना ग्रास 
उसकी  सारी खुशियों को 
दिल दहल जाता है जानकर परिणति इसकी; 
दिमागी संतुलन खो जाना या अपनी जान गँवा बैठना.
(५) 
मिल चुकी है पढ़ाई से मुक्ति 
येन केन प्रकारेण ख़तम हुआ 
अर्थोपार्जन करने के साधन 
जुटाने का दौर, जुगाड़ लेता है 
अपने रहने का ठौर   
गुजरती है  जिन्दगी आलिशान बंगलों में  
कहीं झोपडी में ही सही 
पसीने की गाढ़ी कमाई से कर रहा है
अपना जीवन यापन मिल रहा है खाने
को दो जून की रोटी,  मन ही मन परमपिता 
परमेश्वर से करते रहता है विनती 
कोई छीन न  ले थाली से खाने के लिए 
उठाया हुआ कौर. 
इन तमाम घर गृहस्थी के चक्कर में फंसे 
रहकर  कभी फरमाया है आपने गौर
क्या अच्छा होता फिर से बन जाते हम बच्चे 
विचरते उस दुनिया में जहाँ न कोई बेईमानी है 
न मक्कारी है फरेबी है न  भ्रष्टाचार की बीमारी  है 
जय जोहार......

सोमवार, 19 जुलाई 2010

कमान से निकला तीर जुबान से निकले शब्द वापस नही आते

(१)
मनुष्य जन्म लेता है, 
पग रखता है धरती पर 
रिश्ते- नातों  की श्रृंखला में
जुड़ जाती है एक और कड़ी.
(२)
रिश्तों में खटास पैदा होने में नहीं लगती देर 
लगा दिए जाते हैं सगे सम्बन्धियों पर आरोप
कही सुनी बातों को लेकर बिना दरयाप्ति के
या होके  पूर्वाग्रह से ग्रसित
क्या कहें इसे गलती इंसान के  सोच की 
या समय का फेर
हो जाती है कहा सुनी 
खींच जाती है सबंधों के बीच
दरार की रेखा 
सत्य है,  कमान से निकला तीर
जुबान से निकले शब्द वापस नही आते
यह सभी ने है देखा 
(४)
देखता है मुड़कर पीछे
करता है अपने आप से सवाल
बीता वाकया क्या जायज था 
अंतरात्मा से निकलती है आवाज
नही!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
होने लगती है आत्मग्लानि 
झुलस रहा है पश्चाताप की आग में
(५)
पता चलता है इस बात का आरोपित व्यक्ति  को 
तत्पर हो उठता है बढ़ाने को सामीप्य 
मानके उसका कृत्य क्षम्य 
प्रतीक्षा में है  मिलन के बेला की 
ख़त्म होती है इन्तेजार की घड़ियाँ
दिला जाता है आभास जुड़ने वाली
है फिर से ये रिश्ते नातों की कड़ियाँ 
मिलती है नजरें छलक पड़ता है नयनो से नीर
स्वीकारना अपनी गलती हर लेता मन का पीर 
....ईश्वर से प्रार्थना करते हुए, किसी के प्रति किसी के  मन में खटास  नही आनी चाहिए
जय जोहार.....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

समाज और समिति आज के परिवेश में

आज हमारा समाज विभिन्न जातियों में, वर्गों में बंटा हुआ है.  समाज बना कैसे? जाति बनी कैसे? सभी जानते हैं. वर्ण व्यवस्था अभी की नहीं है, सदियों पुरानी है.  चार आश्रम, चार वर्ण कौन नहीं जानता. वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर की गयी थी. जन्म से लेकर मरण के बीच चार आश्रम से व्यक्ति को गुजरना पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास. प्रत्येक वर्ण का एक समाज होता  भले ही एक ही वर्ण में कई उपजातियां हो. पूरे समाज के कल्याण के लिए एक समिति/संगठन बनता था. बन तो अभी भी रहा है किन्तु आज के परिवेश में इनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है.  आज कल सह शिक्षा,  शासकीय अथवा गैर शासकीय विभागों/संस्थाओं में विभिन्न पदों पर पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा  मिलाकर  कार्य करना समाज नाम की चीज को धीरे धीरे ख़तम करते जा रहा है. समिति याने अब समाज की इति. ऐसा क्यों लिखा जा रहा है? हमने अभी अभी अपने समाज में यह देखा है कि शादी ब्याह के मामले में अब बच्चे अपने माँ बाप के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि माँ बाप कुछ बोल ही नहीं सकते .  समाज जाय चूल्हे में. क्या मतलब है समिति का. ऐसा नही है कि समाज में भी पढ़ी लिखी लड़कियां या लडके नहीं हैं. मगर एक ही कार्यालय में लडके लड़की दोनों कार्यरत होने से प्रेम प्रसंग शुरू हो जाता है और जिस प्रकार  बिल प्रस्ताव या अधिसूचना पारित करवाने में सम्मानीय  राष्ट्रपति का  मुहर लगाना जरूरी होता है, और उन्हें मुहर लगाना ही पड़ता है, उसी प्रकार चले आते हैं माँ बाप के पास मुहर लगवाने. और ज्यादा हुआ तो उसकी भी जरूरत नहीं समझते. दरकिनार कर दिए जाते हैं माँ बाप.  मानता हूँ "वसुधैव कुटुम्बकम" याने सारा संसार ही परिवार है ऐसा समझना चाहिए. एक दूसरे का सहयोग करने के मामले में गलत नहीं है. पर जहाँ तक एक दूसरे में तालमेल बिठाने का, अपने समुदाय के संस्कारों को समझने समझाने  का प्रश्न  है,  ऐसा हो पाना जरा मुश्किल ही लगता है .  अब  जब  यह  प्रचलन में आ ही चुका है तो  वाकई वह दिन दूर नहीं जब समाज का अस्तित्व ही ख़तम हो जावेगा.
जय जोहार........

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ब्लॉग के नशे में चूर ये नाचीज है

और कुछ  नशे के आदी  नही,
ब्लॉग के नशे में चूर ये नाचीज है 
क्योंकि ब्लॉग मे लिखे गए 
हरेक ब्लोगर के लेख उनकी कवितायें 
बड़ी   जायकेदार
और  लजीज हैं
ब्लॉग के सारे मित्र प्रत्यक्ष
हो या परोक्ष, सभी अजीज हैं.


मगर ये कमबख्त 'टाइम'
कहता है 'मैं समय हूँ'
मुझे तुम्हारी परवाह नहीं
है तुम्हे मेरी परवाह
गर  कर ली तुमने  मेरी कद्र
जिंदगी मजे से जियोगे
लोग करेंगे, वाह वाह 
थोड़ा भी चूके 'अवसर'
करते रह जाओगे आह! आह!


करता हूँ यत्न
पोस्ट बाकायदा सभी के पढूं
कुछ अपनी रचना भी गढ़ूं
'समय' को रखते हुए ध्यान
गढ़ पाता नहीं केवल ज्यों की
त्यों रख देता हूँ 
और मुफ्त में अपने अजीज मित्रों 
के आशीर्वचन टिपण्णी के रूप
में ले लेता हूँ 


कुछ सूझ नहीं रहा था 
लिख दिया ये लाइना चार 
अरे कल के रिक्त स्थान को 
भर दें  मेरे यार. 
जय जोहार...... 

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

"हरी थी मन भरी थी राजा जी के बाग़ में दुशाला ओढ़े खड़ी थी"


"हरी थी मन भरी थी 
राजा जी के बाग़ में 
दुशाला ओढ़े खड़ी थी" 
पहेली बुझाते थे,  बुझाते हैं,  बुझाते रहेंगे 
बच्चों को रिझाते थे, रिझाते हैं,  रिझाते रहेंगे 
इस मुल्क के गरीब 
 आग में सेंक ये भुट्टे,  पेट की 
आग बुझाते थे, बुझाते हैं,  बुझाते रहेंगे. 
वाह रे ये भुट्टे, जिसमे होती है प्यारी जुल्फें, 
ऊपर लिखी लकीर के दो लफ्ज़; 'भुट्टे' व 'जुल्फें' 
इक नाम '-----------------------' 
 की याद दिलाते थे,  दिलाते हैं,  दिलाते रहेंगे. 
कृपया रिक्त स्थान की पूर्ति करें. 
जय जोहार........

सोमवार, 12 जुलाई 2010

दाम्पत्य जीवन में दरार, ईश्वर ने कराया ये कैसा करार

(१)
हे श्रृष्टि के रचयिता 
जगत के आधार 
सगुण रूप साकार हो 
  या निर्गुण रूप निराकार
कहते हैं, आपके द्वारा ही 
बना दी गई होती है 
पति पत्नी की जोडी
ताज्जुब होता है 
आपकी अदालत में कराये 
गए इस करार में फिर क्यों 
पड़ जाती है दरार 
(२)
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के 
एक पत्नीव्रत धारी होने का सुबूत 
 छद्म सुंदरी मायावी शूर्पणखा  
का प्रणय निवेदन सहजता से ठुकराया जाना 
किन्तु माता सीता की अग्नि परीक्षा 
आज की नारी के लिए मुश्किल हो गया है पचा पाना 
प्रश्न चिन्ह बन गया है गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा 
श्री राम चरित मानस में इस प्रसंग का लिख़ा जाना.
(३) 
दोस्त जिसे कहते हैं मित्र
यह रिश्ता होता है विचित्र 
एक दूसरे के सामने अपने 
अंतर्मन की व्यथा का उकेर देते हैं चित्र.
दोस्ती की परख होती है सुख दुःख में
एक दूसरे का काम आना 
किन्तु
पति पत्नी के बीच हो यदि उलझन  
कभी न पड़ें इनके बीच यह हमने अच्छे से है जाना
(४)
'शक' का कोई इलाज नहीं 
यह कैंसर से घातक बीमारी है 
तकनालोजी  व विज्ञान की कृपा से
कंप्यूटर  में अंतर्जाल की सबको चढ़ी खुमारी है.
 (५)
अंतरजाल की माया अद्भुत कहीं वरदान है तो कहीं अभिशाप 
कहीं ऑरकुट, तो कहीं फेस बुक, जहँ क्या क्या  नहीं होता!! बाप रे बाप 
कंवारे कंवारी की नादानी  की हरकत फिर भी समझ है आती 
शादी शुदा लोगों की नासमझी  घर में  कैसी क़यामत लाती 
(६)
एक सच्ची घटना का करना चाहूँगा मैं जिक्र
राह से ज़रा भटक रहे हैं मेरे प्यारे से एक मित्र 
उन्हें खींच रही है  एक विवाहिता, अपनाकर शूर्पणखा का चरित्र  
धन्य हैं महाकवि मैथिलीशरण जी, जिन्होंने  उस छद्म  'कामिनी' के रूप को
अपनी कविता की  पंक्ति में ऐसा सजाया; 
"थी अत्यंत अतृप्त वासना दीर्घ दृगों से झलक रही"
उस विवाहिता के इस रूप ने शायद मेरे मित्र का पथ भटकाया 
देख रहा हूँ  उम्र के इस  पड़ाव में स्वतः के घर 
पति पत्नी के प्रेम की मजबूत दीवार में पड़ने लगी है दरार 
हे ईश्वर! अपनी अदालत में इन दोनों के बीच कैसा कराया था तूने करार?
जय जोहार..........

रविवार, 11 जुलाई 2010

खरीदारी में टाइम फेक्टर

भाई, अपन सब  मानव हैं। मोस्टली सबका होता घर है परिवार है। और जहां परिवार है, स्वाभाविक है रविवार को परिवार के साथ जाना बाजार है। हम तो अक्सर बाजार जाते हैं पर घूमने फिरने के लिये नही। मियाँ बीबी दोनो हैं नौकरी मे। और टाइम मिलता नही। दैनिक उपयोग मे आने वाले राशन से लेकर अन्य आवश्यक चीजों की वीकली परचेज़िंग मे हम मियाँ बीबी दोनो ही निकलते हैं। अभी तो घर के जीर्णोद्धार मे व्यस्त हैं और एक एक चीज बटोरने मे त्रस्त हैं। हम खरीदने तो जाते हैं कई दुकान।  भाव ताव करने के बाद खरीदी कर पाते हैं कि नहीं या क्या रहता है मिजाज इसके बारे मे टाइम फेक्टर को लेकर कुछ विचार उमड़ा है; प्रस्तुत है एक नमूना:-
(१)
निकलते थे बाज़ार 
(सन्डे ओपन मार्केट) 
हर  सन्डे  गृह निर्माण के लिए 
जरूरी सामान के भावों का करने कम्पेरिज़न 
शुरू होती  थी यात्रा सुबह १० बजे से 
घर वापसी को बज जाते थे  चार. 
(२)
एक बुधवार को पड़ा गवर्नमेंट होलीडे 
घुस गए सेनेटरी आईटम  की  दुकान में,
समय  वही सुबह १० बजे का
थमा दिया प्लम्बर का दिया हुआ लिस्ट 
बोले दिखाओ सामान और  रेट लिस्ट 
बाज़ार में प्रचलित प्रथा और ग्राहक की व्यथा को 
ध्यान में रखते हुए शुरू हुआ मोल भाव 
बज गए थे इतने में दोपहर के   बारा 
हमने सोचा बहुत हो गया, अब थक चुके हैं
लेंगे अब यहीं से सामान कर देते हैं वारा न्यारा 
(३)
अब बाकी है फाइनल टच, जो लेता है थोड़ा वक्त 
काम बाकी है,  फर्नीचर से लेकर  
खिड़की दरवाजे की फिटिंग  तक कमबख्त 
सो आज भी निकल पड़े थे मार्किट,
 समय था तकरीबन ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे  पूर्वान्ह का   
दुकान  दर दुकान पता कर रहे थे रेडीमेड दरवाजे का भाव 
दरवाजे के भाव पता करने में बज  गए थे अपरान्ह के ढाई 
दुकान वाले को बोला आपका  रेट है बहुत हाई 
 लौटे घर तकरीबन तीन बजे
 कहकर उसको; "सोचते  हैं भाई". 
(४)
सायं साढ़े छः  बजे शुरू हुआ मार्केटिंग का  दूसरा दौर 
पता  किये  कई दुकानों के ठौर
एक  दुकान में लगा भाव  कुछ ठीक ठाक 
तब तक बज गए थे रात के दस 
दुकान वाले को बोले दे दो अपना 
कान्टेक्ट नम्बर कल बताएँगे फाइनल
अभी तो करते हैं यहीं पर  'बस' 
जय जोहार...... 

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कुछ अटपटे कुछ चटपटे दोहे

(१)
ब्लॉग लेखन से क्या जुड़े, नित उमड़त रहत विचार
जब तब फुरसत पाइके, लिख डारत आखर चार
(२)
ड्यूटी के लिये निकल पड़े, पहुंचे रेल्वे स्टेशन  
गाड़ी की लेट लतीफ़ी, लावे दिमाग मे टेंशन
(३)
प्लेट फ़ॉर्म मे टहल रहे, उपजत रह्यो खयाल
शरीर स्वस्थ कैसे रखें, कैसे ठीक हो मन का हाल
(४)
प्रात खाट नित छोड़ि के, नित्य कर्म निपटाय
योग करें, कसरत करें, या पैदल टहला जाय
(५)
भोर वायु शुद्ध रहत है, जानत यह सब लोग
करें सेवन इसका सभी, दूर भगावे रोग
(६) 
(रात मे)
मन विचलित हो तनिक भी, पढ़ें उबाउ किताब
दुइ चार पन्ने पल्टाइये, आयेगी नींद जनाब
(७)
ज्ञान सुमन सुरभित करे, धर्म ग्रन्थ साहित्य
पठन मनन वाचन करें, अरु चिंतन लेखन नित्य
(८) 
और अंत में
केवल इतना लिख सका, करुं जरा विश्राम
शुभ रात्रि स्वीकार हो मेरे प्यारे ब्लॉग आवाम 
जय जोहार...........

बुधवार, 7 जुलाई 2010

मंहगाई बढ़ाओ, गरीब व गरीबी दोनो बचाओ

मंहगाई बढ़ाओ, गरीब व गरीबी दोनो बचाओ
मंहगाई की धार बढ़ाओ, गरीबों को हटाओ, क्योंकि हम लोगों को मौज उड़ाना है।
पर नही!!!!!  हट जायेंगे बेबस गरीब, कौन आयेगा हमरे करीब, हमको तो अपना वोट बचाना है।
इनके सहारे ही सत्ता मे आना है।  गरीब औ गरीबी दोनो को हमें बचाना है। 
अभी अभी ब्लॉग में नए पोस्ट की तलाश में थे.  आदरणीय उदय श्याम जी कोरी की मंहगाई पर लिखी  कविता पर नजर पड़ी. तुरंत ऊपर लिखी चार पंक्तियाँ घुटने (दिमाग) में बाहर निकलने के लिए  दस्तक देने लगी. सोचा चिपका दिया जाय. भैया जी चिपकाई दिए हिंयां.. .
जय जोहार......

"फ़रक़ तो पड़ता है भाई"

ॐ गं गणपतये नमः
 "फ़रक़ तो पड़ता है भाई" आप लोगों ने बहुत पहले दूरदर्शन पर दिखाया जाने वाला विज्ञापन जरूर देखा होगा। इस विज्ञापन के माध्यम से यह बताया जाता था कि रेल्वे क्रोसिंग  सोच समझकर दोनो ओर देखकर गाड़ी पार करनी चाहिये वह भी जब वहां कोई फ़ाटक न लगा हो। उस विज्ञापन मे बस ड्राइवर पहले तो दूसरे बस ड्राइवर के कहने पर ट्रेन आती हुई दिखाई पड़ने पर भी कोई फ़रक़ नही पड़ता कहकर बस क्रॉस करा देता है। दूसरी बार भी वही ढर्रा अपनाता है और उसकी मौत हो जाती है। उसके घर मे दिखाया  जाता है उसकी तस्वीर मे माला पहना दी गई है संकेत के बतौर कि यह शख़्स अब जिन्दा नही है। साथ ही यह भी दिखाया गया है कि वह तस्वीर बोल पड़ती है "फ़रक़ तो पड़ता है भाई"  कुछ ऐसा ही दृश्य ब्लॉग जगत मे भी दिखाई पड़ता नज़र आ रहा है। हम अंधा धुंध पोस्ट उड़ेले जा रहे हैं। हो सकता है कुछ ऐसी पोस्ट भी लिखी गई हो जिसमे असंसदीय भाषा का प्रयोग किया जाना दिखाई पड़ा हो। यह गूगल बाबा के नाराज़ होने का कारण भी हो सकता है। परिणाम ब्लॉगवाणी का विलुप्त होना। आज चाहे टिप्पणी लेखन हो या अपनी रचनाओं का प्रकाशन। "फ़रक़ तो पड़ा है भाई"
जय जोहार………

"शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पाँवर पापमय तिनहि बिलोकत हानि"॥

श्री रामचरित मानस के पंचम सोपान "सुन्दर काण्ड" का यह दोहा:- 
"शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। 
 ते नर पाँवर पापमय तिनहि बिलोकत हानि"॥
मेरे मन मे बार बार यह प्रश्न अवतरित होता  है कि आज के युग मे जहां छल, कपट,  पाखण्ड का बोलबाला हो, कैसे पहचान किया जाय कि अमुक व्यक्ति वास्तव मे शरणागत है। शरण मे आया हुआ है  इसे  त्यागना नही चाहिये। प्रसंगानुसार विभीषण के प्रति श्री रामचंद्रजी का यह कथन अकाट्य सत्य हो सकता है. किन्तु आज के मानव के लिये नहीं।  प्रभु अन्तर्यामी हैं. पहचान गए अपने भक्त को. सबकुछ त्यागकर शरणागत हुआ है.  तभी तो कहते हैं; 
कोटि बिप्र बध लागही जाहू। आएं सरन तजऊ नहि ताहू॥करोड़ों 
ब्राह्मणों की ह्त्या का पाप लगा , शरण आने पर उसका भी  त्याग नही करता. 
इसके पूर्व की पंक्ति में भगवान् कहते हैं; 
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ 
अर्थात जब जीव भगवान् के सन्मुख होता है, करोड़ों  जन्मों के  पाप या कहें दुष्टता धृष्टता वैसे ही नष्ट हो जाती है. यहां तो हम मानव हैं। हम स्वत: सान्सारिक माया मोह त्याग ईश्वर के शरणागत नही हो पाते। शरणागत-- शरण मे जाने वालों के लिये (ईश्वर की शरण में) तीन बातों की आवश्यकता होती है। प्रथम बात शरण्य भगवान के अतिरिक्त दूसरे  किसी में शरण्यता का भाव न होना। किसी अन्य प्राणी में, पदार्थ में, देवता में, साधन में अथवा किसी अन्य में भी शरण्यता का भाव न होना। भगवान के सिवाय और कहीं भी मुझे शरण मिल सकती है -- इस प्रकार की भावना का न रहना।  निष्कर्ष यह निकलता है कि हम शरण्य नही हैं। शरण्य तो परम पिता पर्मेश्वर हैं। उनके शरणागत हों। सियावर रामचंद्र की जय. 
जय जोहार.....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

क्यों करवाते हो आप सभी धरना प्रदर्शन अरु बंद हो गई कम मंहगाई क्या तत्काल आज से वृन्द

मैंने कुछ दिन पहले एक पोस्ट लिख़ा था "तवा गरम है सेंक लो रोटी".  अभी अभी पेट्रोल,  डीजल व रसोई गैस के दाम बढ़े हैं. इन इंधनों का दाम बढ़ना नेताओं के चूल्हों में और आंच पैदा करने वाले इंधन का काम कर रहा है. मसलन आज विपक्षियों का एकजुट होकर धरना प्रदर्शन करना. अमूमन सत्ता  और विपक्ष के बीच का यह खेल नया नहीं है. काफी पुराना है. जो कुर्सी पर काबिज रहेगा उसे विपक्ष की ऐसी हरक़तों का सामना करना पड़ेगा.  पिसेगी आम  जनता.  आज का भारत बंद भी कुछ ऐसा ही रहा.  स्वस्फूर्त कोई बंद या प्रदर्शन के लिए राजी नहीं होता.  बलपूर्वक राजी करवाया जाता है. कोई पार्टी विशेष की बात नहीं है. होता कुछ यूँ है; 
बंद या प्रदर्शन, है हर पार्टियों के
गरम तवे में रोटी सेंकने के पुराने हथकंडे 
क्योंकि सभी नेता हैं एक ही थैली के चट्टे बट्टे 
समर्थन इन्हें मिलता नहीं है, पाते हैं समर्थन 
डरा धमका कर, क्योंकि इनके गुर्गों के पास होते हैं
किसम किसम के  देशी  विदेशी कट्टे
जय जोहार....


सोमवार, 5 जुलाई 2010

'तन्हाई'

(१)
जनरली 'तन्हाई' किसी की 'चाहत'
के दूर होने का नाम है 
और देखा जाता है 
'तन्हाई' का राग अलापना  
प्रेमी या प्रेमिका का काम है.
(२)
आज की 'तन्हाई' में
कहाँ है राधा का   कन्हाई वाला  
निश्छल औ नि:स्वार्थ  प्रेम 
शायद 'प्रेम' बदल गया है 'प्यार' में
जिस्मानी चाहत देखी जाती है अपने यार में 
(३)
आज अनुभव हुआ घर में 
हमने किया इस बात पे गौर 
हम दोनों के रहते हुए भी 
तन्हाई का आलम है 
बच्चे चले गए हैं पढ़ाई की खातिर 
अपने अपने ठौर
(४)
अचानक दिखाई  पड़ने लगा 
बुढ़ापे की जिंदगी का नजारा 
बेटी ब्याह दी जायेगी, 
बिदाई का वह  क्षण होगा दिल पे
पत्थर रख बिदा कर दी जावेगी बिटिया  
'ससुराल' होगा उसका 'घर'  
बाबुल का घर कहलावेगा 
उसका 'मायका' या 'पीहर'  
(४)
बेटे की भी तालीम पूरी हो गई है 
नौकरी भी मिल गयी है 
 खुशी है,  ऊंचे  ओहदे वाली नौकरी, अच्छी पगार 
मगर यहाँ कहाँ, वह तो जा रहा है 
सात समंदर पार. 
(५) 
 बेटे की शादी के बाद नहीं रहेगी 
इस बात की ग्यारेन्टी  कि 'बहू' का सुख 
उसकी सास भोग पाएगी
अरे बहू यहाँ क्यों रहेगी, जहाँ होगी बेटे की 
नौकरी उसके साथ साथ जाएगी 
(६)
दरअसल बेटा तो है राजस्थान कोटा में 
बेटी चली गयी थी रायपुर  
घर सूना सूना लग रहा था
हम दोनों के मन में लगे थे उपजने  
कुछ यूं ही विचारों के सुर
और इन विचारों के चलते  हमने जाना भाई 
प्रेमी या प्रेमिका का  विरह ही नहीं, 
भरे पूरे परिवार में, किसी की भी  गैर हाजिरी 
पैदा कर देती है 'तन्हाई' 
.......जय जोहार