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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

लोग हमसे बिदकने लगे हैं


                   बहुत दिनों से मेरे अंतरजाल में फोंट की समस्या उत्पन्न होने या  यूँ कहें कि   नेटवर्किंग के बारे में अपने  अल्प ज्ञान  के कारण एक भी पोस्ट नहीं लिख पाया. पोस्ट के बदले "रचना"  अरे अरे अरे ... भाषा विज्ञान अथवा साहित्य का "सा" भी जिसे ज्ञात न हो वह रचना शब्द कैसे प्रयोग में ला सकता है, "पोस्ट" कहना चाहिए ..अतः "पोस्ट" लिख देता हूँ.  आजकल मित्र मंडली से अलग थलग महसूस कर रहा हूँ. यह न समझा जाय कि मित्र मंडली ने मुझे अलग कर दिया है. इस सन्दर्भ में मेरे मन में उपज रहा संदेह कहें या मन का भ्रम चार पंक्तियों में प्रकट करने से रोक नहीं पा रहा हूँ  :-
लोग हमसे बिदकने लगे हैं
रिश्ते नातों के सेतु भसकने लगने हैं 
दिया है कुदरत ने  ज़िन्दगी का  तोहफा-ए-जुबाँ  
जुबाँ से निकले अलफ़ाज़,
 लगता है लोगों के  दिल को  चुभने  लगे हैं
लोगों के बीच जिसका कोई वजूद नहीं, 
पल- पल बनके "अरसा" गुज़रने लगे हैं 
ऐ मालिक! करता है अर्ज़ तुझसे ये नाचीज़ 
जल्दी दफा कर दुनिया से इसे 
लगता है हम दिला न पाए  एहसास अपनेपन  का 
अपनों के बीच हम  पराये लगने लगे हैं 
जय जोहार..........