वात, पित्त, कफ संतुलन जब जब बिगड़ा जाय।
तरह तरह की व्याधि देह में खूब उत्पात मचाय॥
कानून का पालन कौन करे, हैं हम आज स्वतन्त्र ।
जिव्हा का हुकम है मानना चाहे बिगड़े पाचन तंत्र ॥
धन दौलत की चाह संग संग मार गई मंहगाई।
भाग- दौड़ आपा-धापी में काया की सुध है गंवाई॥
रोग ग्रसित जब होत हैं, चंहूँ ओर नजर दौड़ाय।
वैद्य, चिकित्सक, डॉक्टर, कौन है मर्ज भगाय॥
नाड़ी देख तकलीफ़ जो रोगी को दियो बताय।
जानत यह तरकीब जो, नाड़ी वैद्य कहलाय॥
औषधि से बढ़कर पथ्य अरु परहेज आवे है काम।
दवा खायें वैद्य-सलाह ले, मिले जल्द से जल्द आराम॥
वैद्यकीय पढ़ाई सहज नही, श्रम "काल" "अर्थ" खर्च होय।
इम्तिहान सरोवर जो पार करे, ओपे फ़ख्र करे हर कोय॥
विग्यान तरक्की कर रहा, होय नित नव अनुसंधान।
कोई रोग असाध्य नही, लें जन मानस यह जान ॥
वर्तमान चिकित्सा पद्धति, करें जेबें सबकी खाली।
मुर्दे से भी पैसा वसूले, "सेवा- भाव" की बलि दे डाली॥
अंतिम पंक्ति इसलिये लिखी गई है कि आज प्रत्येक व्यक्ति द्रुत गति से धन संचय के फ़िराक मे लगा रहता है। यह सही है कि आज की चिकित्सकीय पढ़ाई बहुत ही खर्चीली है। यह भी एक वजह हो सकती है "सेवा भाव" धीरे धीरे खतम होने की। मां बाप ने कर्ज लेकर पढ़ाया हो, उसे छूटना है अथवा अनंत अभिलाषाओं की/चाहतों की पूर्ति करनी है, पता नही। एक नर्सिंग होम मे मुर्दे को जबरन वेंटिलेशन मे रख उसके रिश्तेदार से दो दिन का "चार्ज" वसूलना किसी ने बताया था या पढ़ा था पेपर मे; याद नही आ रहा है किंतु इसी परिपेक्ष्य मे अंतिम दोहा लिख बैठा। वैसे भी आजकल रोग के लक्षण के आधार पर चिकित्सा कम ही देखने को मिलती है। लक्षण तो रोगी का देखा जाता है। स्टेटस के मामले में। तमाम पेथालॉजिकल टेस्ट कराने की सलाह पहले दी जाती है। वैसे हम भी, चाहें मरीज हों या मरीज के परिजन, जो आजकल ज्यादा ही डेढ़ होशियार हो गये हैं, इसके लिये जिम्मेदार हैं। फ़लां डॉक्टर बेकार है, सिंपल एम बी बी एस तो है, भाई हम तो अब डी0एम0 की डिग्री वाले के पास ही जायेंगे। इस साइकोलॉजी का सभी फ़ायदा उठाना चाहेंगे। क्षमा चाहूँगा हरेक के लिए यह बात लागू नहीं होती. हो सकता है देश काल परिस्थिति के हिसाब से इस प्रकार का वातावरण बन गया हो।
जय जोहार…।