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बुधवार, 7 जुलाई 2010

"शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पाँवर पापमय तिनहि बिलोकत हानि"॥

श्री रामचरित मानस के पंचम सोपान "सुन्दर काण्ड" का यह दोहा:- 
"शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। 
 ते नर पाँवर पापमय तिनहि बिलोकत हानि"॥
मेरे मन मे बार बार यह प्रश्न अवतरित होता  है कि आज के युग मे जहां छल, कपट,  पाखण्ड का बोलबाला हो, कैसे पहचान किया जाय कि अमुक व्यक्ति वास्तव मे शरणागत है। शरण मे आया हुआ है  इसे  त्यागना नही चाहिये। प्रसंगानुसार विभीषण के प्रति श्री रामचंद्रजी का यह कथन अकाट्य सत्य हो सकता है. किन्तु आज के मानव के लिये नहीं।  प्रभु अन्तर्यामी हैं. पहचान गए अपने भक्त को. सबकुछ त्यागकर शरणागत हुआ है.  तभी तो कहते हैं; 
कोटि बिप्र बध लागही जाहू। आएं सरन तजऊ नहि ताहू॥करोड़ों 
ब्राह्मणों की ह्त्या का पाप लगा , शरण आने पर उसका भी  त्याग नही करता. 
इसके पूर्व की पंक्ति में भगवान् कहते हैं; 
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ 
अर्थात जब जीव भगवान् के सन्मुख होता है, करोड़ों  जन्मों के  पाप या कहें दुष्टता धृष्टता वैसे ही नष्ट हो जाती है. यहां तो हम मानव हैं। हम स्वत: सान्सारिक माया मोह त्याग ईश्वर के शरणागत नही हो पाते। शरणागत-- शरण मे जाने वालों के लिये (ईश्वर की शरण में) तीन बातों की आवश्यकता होती है। प्रथम बात शरण्य भगवान के अतिरिक्त दूसरे  किसी में शरण्यता का भाव न होना। किसी अन्य प्राणी में, पदार्थ में, देवता में, साधन में अथवा किसी अन्य में भी शरण्यता का भाव न होना। भगवान के सिवाय और कहीं भी मुझे शरण मिल सकती है -- इस प्रकार की भावना का न रहना।  निष्कर्ष यह निकलता है कि हम शरण्य नही हैं। शरण्य तो परम पिता पर्मेश्वर हैं। उनके शरणागत हों। सियावर रामचंद्र की जय. 
जय जोहार.....

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