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शनिवार, 9 जनवरी 2010

तकनालोजी का असर "दिल्ली क्या अब लगता नहीं सात समंदर पार भी दूर"

प्रौद्योगिकी  या  कहें टेक्नोलोजी 

मानव मस्तिष्क का ही कमाल
जीवन के हर क्षेत्र की समस्यायों को सुलझाने में
मार रहा है बाजी
बशर्ते बुराइयों को न करें ग्रहण
देर नही लगती, परिवार की खुशियों को
लग जाता है "ग्रहण"
कंप्यूटर, सेटेलाईट, इन्टरनेट की
माया से वाकिफ हैं सभी
कैसे करूं बयां, उन यादगार लम्हों को
गुजारा है  हमने नेट फ्रेंड के घर अभी अभी
दिसम्बर का महीना, नौकरीपेशा लोगों के लिए उनके खजाने में यदि छुट्टियाँ बची हों तो उन छुट्टियों को खरचने में गुजरता है. खासकर महीने का आखिरी हफ्ता. हम भी परिवार के तीन सदस्य (हम दो हमारे दो में से बिटिया भर) प्रोग्राम बयाये कि अहमदाबाद के  हमारी घराड़ी के अंतरजाल मित्र,  जिनसे जीजा साले का रिश्ता कायम हुआ है (हम जीजा वो साले), के बुलावे पर अहमदाबाद जाना है और राजस्थान कोटा के बंसल क्लासेस  में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में प्रवेश हेतु प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हमारे छोटे जनाब (बेटा) से मुलाकात कर वापस भिलाई अपने घर ठीक साल के अंत में लौट आना है. छब्बीस को रवाना हो गए अहमदाबाद एक्सप्रेस से. रिजर्वेशन था अहमदाबाद एक्सप्रेस में. स्लीपर क्लास में.  यात्रा के दौरान केवल अपने तक सीमित रहें ऐसा प्रायः नहीं होता है.  अतएव हम तीनो का एक ही कम्पार्टमेंट में (ऊपर नीचे व बीच) मिला था रिजर्वेशन. हमारे सामने भी एक ही परिवार के तीन सदस्यों का बर्थ था.  धीरे से परिचय का सिलसिला शुरू हुआ. परिचय के दौरान पता चला  हम दोनों एक ही उपनाम वाले हैं और वे भी केंद्र शासन के ही कर्मचारी हैं(रेल विभाग में कार्यरत). धीरे धीरे एक दूसरे की रूचि का पता चला.  अध्यात्म व पूजा पाठ की बातें चलती रहीं.  अपने अपने अनुभवों का बखान होता रहा. यात्रा बोझिल नहीं  नहीं लगी.  २७ को तकरीबन आधे घंटे की देरी से हमारी लौह पथगामिनी अपने अड्डे (लौहपथगामिनी गमनागमन विश्रामस्थल) पहुची.  वहां साले साहब पहुच चुके थे अपनी बिटिया के साथ.  मिलते ही संस्कार व शिष्टाचार को जिन्दा रखते हुए अभिवादन का दौर चला.  बकायदा उन्होंने हमारे पैर छुए. साथ में यात्रा कर रहे भाई साहब  से भी गले मिल एक दूसरे को अपने अपने घर आने का निमंत्रण देते हुए विदा लिए.  हम अपने इस साले साहब के बारे में संक्षिप्त में यहाँ बताना चाहेंगे की वे
फलों के अढ़तिया हैं. स्पष्टवादी.  हमने उन्हें मित्र बनते ही कहा था, कुछ ही दिनों की मुलाकात के बाद ; "आम" और अंगूर के बीच अर्जुन भाई ख़ास हैं.  दूर रहकर भी लगते कितने हमारे पास हैं.  घर पहुचने पर परिवार के सभी सदस्यों (सरहज व  भतीजा) द्वारा पहली मुलाकात में ही, बड़ी आत्मीयता के साथ  स्वागत किया जाना अविस्मर्णीय बन गया.  बच्चे थोड़ी देर में ही एक दूसरे से हिल मिल गए.  परंपरा रही है, कोई भी व्यक्ति कहीं भी जाता है भेंट स्वरुप कुछ न कुछ मेजबान के घर ले जाता है. यह संबंधों को अक्षुण बनाये रखने के लिए (स्मृति स्वरुप) किया जाता है, प्रतिष्ठा के लिए नहीं. अतएव हमारी श्रीमती जी ने इसकी औपचारिकता पूरी की. भोजन व   तनिक  विश्राम के पश्चात् उस दिन, दिन क्या शाम हो चुकी थी, केवल साबरमती आश्रम का भ्रमण कर आये. दूसरे दिन 28 तारीख  को  मुख्य स्थानों में से कुछ ही स्थान देख पाए क्योंकि २8 को ही रात की ट्रेन से अपने बेटे से मिलने "कोटा" जाना था.  देखे हुए स्थानों में  इस्कान मंदिर, वैष्णव देवी मंदिर. त्रिदर्शन मंदिर व प्राचीन धरोधर

 

                                                                  " अडालज की वाव"         
मुख्य रहे.
अहमदाबाद से  19 किलोमीटर उत्तर में यह स्टेप वेल रानी रुदाबाई  द्वारा निर्मित  वास्तुकला का एक  अद्भुत नमूना  है और निश्चित रूप से गुजरात के बेहतरीन स्मारकों में से एक है. 
                         हमारी श्रीमती की एक और अंतर-जाल  दोस्तानी से भी मुलाकात का अवसर बना.  उन्हें चलित दूरभाष द्वारा सूचित किया गया कि हम परिवार सहित अहमदाबद आये हुए हैं.  सूचना मिलते ही पति पत्नी जहाँ हम रुके थे वहीँ 28   को शाम  तीन बजे  पहुंचे. २-३ घंटे का समय बड़े खुशनुमा माहौल में कैसे बीता पता नहीं चला.  भाई अर्जुन की गहरी  आत्मीयता कभी भुलाई नहीं जा सकती. रात साढ़े नौ बजे की ट्रेन थी. एक घंटे पहले उनके घर से विदा लिए जैसा कि   उस दिन शहर का पूरा रास्ता मुहर्रम  की वजह से ताजियों के जुलुस से जाम था.  समय  पर स्टेशन पहुँच गए . विदा लेते समय माहौल थोडा ग़मगीन हो गया था क्योंकि दोनों परिवारों  में अनूठा अपनत्व हो गया था. आँखे भर आयीं जब  ट्रेन छूटने  लगी.  
                            २९ की सुबह कोटा पहुच गए. स्टेशन से करीब १२-१४ किलोमीटर दूर स्तिथ हॉस्टल गए बेटे के पास. हॉस्टल में ही अभिभावकों को २-३ दिन  रुकने की व्यवस्था कर दी जाती है. बेटे की पढाई लिखाई व उसकी सेहत की जानकारी लिए.  बच्चों को दूर दराज भेजने के बाद अभिभावकों की जादा दयनीय स्थिति हो जाती है. बच्चे को भी इसका आभास होता है किन्तु फिर भी वह शायद घर से (खाने पीने के मामलों को छोड़) थोडा ठीक अनुभव करने लगता है (स्वतंत्रता जो मिली होती है टोका टाकी सुनने से बचने की  ) २९ -३०  दो दिन उसके साथ बिताये.  अच्छा लगा.  30 की रात ११.०५ बजे की ट्रेन से ३१ की रात १०.३० बजे अपने घर वापस. 
आये के बाद तुरते लिखे रेहेंव "ल उ टे हौं अभीच्चे"
द इ स ने ताय भैया जात्रा करें गा 
जय जोहार  जी



 

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