अखबार पढने के बाद आज मैं सोच रखा था कि ख़बरें तो पढ़ते रहते हैं. पर कुछ सीखने लायक चीजें जो नित्य विनिर्दिष्ट कॉलम में दी जाती हैं उनमे से कुल जमा ४ पोस्ट लिखने लायक है. अभी तक तीन तो लिखा गया अब एक और बाकी रही गया था वह क्यों बचा रहे. आज तरुण सागर जी द्वारा सास बहू रिश्तों की मिठास के लिए सुझाए गए कुछ टीप पेपर में छपा है जिसे मैंने शीर्षक "अखबार पढने का सुर" में पोस्ट किया है. यह पोस्ट अखबार में नित्य प्रकाशित होने वाले कॉलम "जीवन दर्शन " और "जीने की राह" में प्रकाशित पंडित विजय शंकर मेहताजी के विचारों में से है ........ "गृहस्थी व नारी अध्यात्म साधना में बाधा नहीं" अभी भी कई लोग मानते हैं कि अध्यात्म साधना में दांपत्य संकट बाधक है, गृहस्थी रुकावट है, परिवार बाधा है और नारी तो नर्क का द्वार है. जो लोग भगवान् तक पहुचना चाहें या भगवान् को अपने तक लाना चाहें, वे यह समझ लें कि एकाकी जीवन से तो भगवान् ने स्वयं को मुक्त रखा है. ईश्वर के सभी रूप लगभग सपत्नीक हैं. फिर परिवार तथा पत्नी बढा और व्यवधान कैसे हो सकते हैं. अध्यात्म ने काम का विरोध किया है स्त्री का नहीं. अनियमित काम भावना स्त्री की पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति घातक हैं. भारतीय संस्कृति में ऋषि मुनियों के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही तपस्या की थी. बाधा तो दूर वे तो सहायक बन गयी थीं. बीते दौर में अध्यात्म साधकों ने विवेकशील चिंतन को बहुत महत्व दिया था. विवेक के कारण स्त्री-पुरुष का भेद अध्यात्म में मान्य नहीं किया है. जब भेद ही नहीं है तो स्त्री बाधा कैसे होगी? नारी संग और काम भावना बिलकुल अलग-अलग हैं. ब्रह्मचर्य को साधने के लिए नारी को नर्क की खान बताना ब्रह्मचर्य का अपमान है. वासना का जन्म संग से नहीं, कुविचार और दुर्बुद्धि से होता है. स्त्री पुरुष के साहचर्य को अध्यात्म में पवित्रता से देध गया है. इसीलिए विवाह के पूर्व स्त्री पुरुष को अध्यात्मिक अनुभूतियों से जरूर गुजरना चाहिए. पति-पत्नी के संबंधों में पवित्रता व परिपक्वता कें लिए अध्यात्मिक अनुभव आवश्यक हैं. इस रिश्ते में आज जैसी अशांति देखी जा रही है, इसका निदान भौतिक संसाधनों और तरीकों से ही नहीं होगा. इसमें अध्यात्मिक मार्गदर्शन उपयोगी रहेगा. ........
आज की तारीख में इसे सभी को पढकर अमल में लाना चाहिए. ये सब बातें अमल में कहाँ लाई जावेगी. अभी तो बातें अमल में लाने वाली नहीं अम्ल बनाने वाली हो रही हैं जिसमे रिश्ते जल्दी गल जाते हैं. कायम नहीं रह पाते, रहते भी हैं तो घिसट घिसट कर चलते रहते हैं. वैचारिक अपंगता आ जाती है.
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