आज हम जिस तरह से अपने देश में अरे देश की बात तो दूर, घर में ही जिस प्रकार की जिन्दगी बिता रहे हैं लगता है वाकई हमें काफी आजादी मिली हुई है. नो नियम, नो कानून कायदा. लगता है स्वतंत्रता का मतलब स्वच्छंदता मानकर चलते हैं.यह विचार रोज मेरे मन में यात्रा के दौरान रेल में, रेल से उतरते ही सड़क में, जादा ही उमड़ घुमड़ के आता है. रेल का डिब्बा खासकर लोकल गाड़ी में यात्री मनमानी करते हुए डिब्बे में कचरा फैलाये रहते हैं वहीँ खा रहे हैं छिलके डब्बे के अंदर ही फेंके जा रहे हैं. समूचा डिब्बा दुर्गन्धमय , कारण हमसे यह नहीं होता कि यदि आप नेचरल कॉल अटेंड करके आये हैं तो कम से कम टॉयलेट का दरवाजा तो बंद कर दें. बंद भी कहाँ से हो. शासकीय संपत्ति आपकी अपनी है की धारणा के साथ उसे पूरा पूरा अपना बना दिया गया होता है मसलन उस पर असंसदीय भाषा लेखन खिड़की दरवाजे से कांच निकाल कर सिटकिनी टूटी हुई आदि आदि .. रेल विभाग भी रोजमर्रे की लोकल गाड़ी में क्या क्या करे . भले ही किताब में सब करने का जिक्र हो. यह तो हुई रेल के डिब्बे की बात. बाकी घर के बाहर निकलने पर मैदान सड़क आदि में तो कोई रोक टोक ही नहीं है जी. मैं कोई नई बात नहीं लिख रहा हूँ. .......... बस मन यह मानकर चुप हो जाता है कि "जाही विधि राखे राम तही विधि रहिये". स्वच्छंदता की बात यहीं तक नहीं है ..... हम खुद अपने में झांकें तो पता चल जाएगा कि कितने अनुशासित हैं हम स्वतः? अनुशासन शब्द का बोध होते ही "दंड" समझ बैठते हैं.
ठीक है भाई ............
शुभ रात्रि जय जोहार....
4 टिप्पणियां:
अफसोस तो होता है यह सब देख कर.
सरकारी सम्पत्ती आपकी अपनी है और आपकी सम्पत्ती .............. ????
जय हो !
शुभ प्रभात
(हमने प्रभात मे पढा इसलिये)
संजीव बने टिपण्णी दे हस. मोला लाल दंतमंजन के विज्ञापन के सुरता आगे
"...............................और मास्टर जी आपके दाँत?????????? हा हा हा
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