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बुधवार, 30 जून 2010

अंधों मे काना राजा





(1) 
अपनी भाषा अपनी बोली है अपनी हिंदी 
        पर  बन न पाई ये भारत माँ के माथे की बिंदी 
(अपने देश की शान) 
माह सितम्बर, दफ्तर दर दफ्तर,  मनता है हिंदी पखवाड़ा 
क्या चल पाता है यह आयोजन बिना किसी फर्जीवाड़ा  
(2 )
सरकारी दफ्तर ( खासकर निजी संस्थाओं व केंद्र सरकार के अधीन कार्यालय में हिंदी 
दुबकी दुबकी रहती है 
पखवाड़े में निकल के बाहर,  देख चोचले अरु ढकोसले
बहते  नयनो से आंसू, गले में सिसकी हिचकी रहती है 
(3)
ले देकर प्रतिभागी मिलते, कोई एक ही डफली बजा पाता
पारितोषिक मिलता, सीना गर्व से तनता  जाता 
किन्तु विद्वजनो से  जब पड़ता पाला, बज जाता इनका बाजा 
एहसास तभी होता इनको, दबे दबे शब्दों में  कहते 
 "हम तो ठहरे निपट गंवार, थे  अंधों  में काना राजा" 
जय जोहार.......

1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

इसे सितम्बर के लिये बचाकर रखना था