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दुर्घटना का हश्र ये रहा कि बेटे के माथे पर जम कर चोट लगी थी. रक्त प्रवाह देखा नहीं जा रहा था. पत्नी तो बेहोश होने जैसी थी. एक मारुती कार रुकी. कार में बैठा परिवार दुर्ग की ओर ही आ रहा था जैसा कि कार वाले भाई साहब द्वारा बताया गया. निवेदन करने पर मुझे व मेरे बच्चे को रायपुर स्थित मेकाहारा अस्पताल ले जाने के लिए कार वाले भाई साहब राजी हो गए और रायपुर के लिए रवाना हुए. रास्ते में प्रभु ने प्रेरणा दी कि रायपुर ले जाते तक बेटे के माथे का रक्त प्रवाह न रुका तो क्या होगा? क्यों न घटना स्थल से 8-10 किलोमीटर दूर स्थित धरसींवा ग्राम के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में प्राथमिक उपचार करा लिया जावे. अतएव हम लोग धरसींवा के अस्पताल में उतर गये. कार वाले भाई साहब को धन्यवाद के शब्द भी न कह पाए क्योंकि वे तत्काल निकल पड़े. स्वाभाविक है उन्होंने इतनी मदद कर दिया वही बहुत है. नही तो दुर्घटना प्रकरण में सामान्यतया पुलिसिया कार्रवाई में पड़ने के डर से कौन ध्यान देता है? उधर घटना स्थल पर घायल पत्नी और बिटिया दोनों पड़े थे कि गाँव वालों की मदद से एक और गाड़ी "टाटा सुमो" रुकी और उन दोनों को अपनी गाड़ी में बिठा चिकित्सालय के लिए रवाना हुई. पत्नी तो बेहोशी की हालत में थी. वह एकदम भूल गयी थी कि हम कहाँ और किस हालत में हैं. बिटिया से बार बार पूछे जा रही थी कि 'हम कहाँ जा रहे थे', 'गाड़ी कौन चला रहा था' , 'सुरम्य (बेटा) कैसा है' ... 'पापाजी (मुझे) कैसे हैं' .....आदि आदि. बिटिया सुरभि भी रोने लगी यह सोचकर कि मम्मी को क्या हो गया है? गाड़ी वाले की सज्जनता देखिये; उन्होंने पत्नी से कहा धैर्य रखिये सब ठीक है. ढाढस बंधाते रहे. इधर मैं बेटे को लेकर धरसीवां अस्पताल पहुँचते ही पत्नी से चलित दूरभाष (मोबाइल) के माध्यम से बताया कि हम लोग धरसींवा अस्पताल में हैं. अतः "टाटा सूमो" वहीँ आकर रुकी. पूछने पर उन्होंने अपना नाम संजय अग्रवाल व रहना तहसील बिल्हा बताया. क्या कहूं इनके द्वारा हमें पहुंचायी गई सहायता के बारे में. साक्षात भगवान् आ गए थे ऐसा लगा. सामयिक उपचार में आज की तकनालोजी की देन इस मोबाइल की भूमिका को भी नहीं भुलाया जा सकता. तत्काल समाचार सभी महत्वपूर्ण स्थानों में पहुँच गया. विभागीय अधिकारी, मेरे अभिभावक (माता पिता तुल्य) छोटे मामाजी व मामीजी समय पर धरसीवां अस्पताल पहुँच गए.
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बेटे व पत्नी को ज्यादा चोट लगी थी. बिटिया सही- सलामत थी और हम सभी को ढाढस बंधाये जा रही थी. उसके साहस का भी कोई जवाब नहीं. धरसीवां उपचार केंद्र तक बेटा भी विचलित नहीं था. वहां उसके सर से हो रहे रक्त प्रवाह रोकने का उपाय चल ही रहा था कि एकाएक उसकी स्थिति बिगड़ने लगी. झटके आना, मुंह से झाग निकलना आदि. मेरे तो होश फाख्ता हो गए. बेचैनी बेहोशी व रोना. आज भी मेरे मामाजी व बेटे के पास उपस्थित लोग इस बात की याद दिलाते हैं तो मन सिहर जाता है. यहाँ तक कि डॉक्टर के पसीने छूटने लगे थे. डॉक्टर सुशील शर्मा सर्जन ओर्थोपेडिक. त्वरित प्राथमिक उपचार के पश्चात उसे एम्बुलेंस से स्वयं डॉक्टर साहब द्वारा रायपुर स्थित अग्रवाल हॉस्पिटल ले जाया गया. सी टी स्केन, पेथोलोजी जांच में जरा भी देर नहीं की गई. इन कार्यों में मेरे विभागीय अधिकारियों, मेरे अभिभावकों मेरे ससुराल वालों का सहयोग अविस्मर्णीय एवं जिन्दगी भर उनके इस उपकार को न छूटा जा सकने वाला रहेगा. सी टी स्केन की रिपोर्ट नोर्मल बतायी गई. डॉक्टरों द्वारा यह आश्वत किया गया की घबराने की कोई बात नहीं है. माथे की हड्डी में थोड़ा सा फ्रेक्चर है जिसे शल्य क्रिया द्वारा ठीक किया जा सकेगा.
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बेटे को अस्पताल के गहन चिकित्सा इकाई में रखा गया. उसे देखने को मन तड़प रहा था. देखने दिया गया. ऑक्सीजन मॉक्स लगा हुआ था. बेटा पूरे होश में था. इशारे से बात कर रहा था. देखकर थोड़ा सुकून मिला किन्तु अश्रु प्रवाह को न रोक सका. बेटे की आँखों में भी आंसू भर आये थे. भले ही वह कह रहा था कि नहीं रो रहा है. इधर अंदरूनी चोट से पत्नी भी कराह रही थी किन्तु सारा ध्यान बेटे में लगा था. रात साढ़े आठ बजे (8.30PM) बेटे को शल्य क्रिया कक्ष ले जाया गया. शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करीब रात ग्यारह बजे तक चली. चूँकि शल्य क्रिया पूर्व उसे निश्चेत किया गया था, उसी अवस्था में गहन चिकित्सा इकाई में पुनः लाया गया. वह रात बड़ी मुश्किल से कटी "दुःख में सुमिरन सब करै" को हम चरितार्थ कर रहे थे मन ही मन " मन्त्र जप" चल रहा था...........क्रमशः
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